अबनॉर्मल बच्चे को जन्म देना महिला के साथ नाइंसाफी इसलिए जरूरी था MTP एक्ट बदलना

punjabkesari.in Friday, Apr 09, 2021 - 04:47 PM (IST)

मां बनना महिला के लिए एक सुखद अहसास है। इसी सुख को पाकर वह खुद को संपूर्ण मानती हैं हालांकि 9 महीने की गर्भावस्था, महिला को मिले-जुले अनुभव देती है। इसी लिए महिला को हैल्दी खान-पान व तनावमुक्त रहने की सलाह दी जाती है लेकिन कई बार प्रेगनेंसी के दौरान परिस्थितियां इतनी उलझन (कॉम्लिकेशन) भरी हो जाती है कि गर्भपात करवाना ही एकमात्र उपाय बचता है। गर्भवती महिला की जान जोखिम में होना, अविकसित भ्रूण, अजन्मे बच्चे को शारीरिक व मानसिक समस्याएं होना, जैसी बड़ी समस्याओं के लिए गर्भपात करवाना ही उचित स्थिति माना जाता है।

1. अबनॉर्मल प्रैगनेंसी बेहद कठिन व चुनौतीपूर्ण

गर्भ में बच्चे का अबनॉर्मल होना, एक ऐसी स्थिति जो महिला व उसके परिवार के लिए बेहद कठिन व चुनौतीपूर्ण होती है। ज्यादातर महिला ऐसे हालत में गर्भपात करवा लेना उचित समझती है। यह समय और भी मुश्किलों भरा हो जाता था जब मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेग्नेंसी (एमटीपी) एक्ट के तहत 20 हफ्तों की समय सीमा के बाद गर्भपात नहीं करवाया जा सकता था। ऐसी स्थिति में मां-बाप चाहते या ना चाहते हुए भी अबनॉर्मल बच्चे को पैदा करने पर मजबूर थे जिसके बारे में उन्हें पहले से ही यह मालूम रहता था कि उनका बच्चा ज्यादा देर जीवित नहीं रह पाएगा या दूसरों पर आश्र्ति रहेगा।

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2. मजबूरी में अबनॉर्मल बच्चा पैदा करना महिला के साथ नाइंसाफी - डॉ. निखिल दातार

ऐसी महिलाओं की याचिकाओं व अवधि बढ़ाने की मांग को लेकर प्रसूति एवं स्त्री रोग विशेषज्ञ डॉ. निखिल दातार  (Cloudnine Hospital, Malad, Mumbai)  ने लंबी लड़ाई लड़ी, उन्होंने 2008 में मेडिकल टर्मिनेशन के कायदे में बदलाव के लिए बॉम्बे हाई कोर्ट का रुख किया, सुप्रीम कोर्ट के समक्ष भी स्पैशल लीव पीटिशन दायर की ताकि भारत सरकार से मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेंग्नेंसी (एमटीपी) एक्ट 1971 के एक्ट में बदलाव के तहत 20 हफ्तों की समय सीमा को आगे बढ़ाए। डॉ. दातार ने पंजाब केसरी के माध्यम से एमटीपी एक्ट से जुड़ी महत्वपूर्ण जानकारी और इसमें होने वाले बदलाव साझा किए।

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'मेडिकल प्रैक्टिस के दिनों में ही एमटीपी एक्ट 1971 में बदलाव की ओर मेरा रुझान रहा था क्योंकि मैं कानूनी पढ़ाई भी कर रहा था। गर्भावस्था की अवधि बढ़ाने की मांग का एक बड़ा कारण बच्चे की गंभीर शारीरिक व मानसिक समस्याओं का 20 हफ्तों के बाद सामने आना भी था। यह महिलाओं के साथ नाइंसाफी थी जो ना चाहते हुए भी अबनॉर्मल बच्चे को जन्म देने के लिए मजबूर थी।' -डॉ. निखिल दातार

3. गर्भपात की इस अवधि को बढ़ाया जाना क्यों जरूरी था?

गैर कानूनी रूप से गर्भपात रोकने के लिए इस अवधि को बढ़ाया जाना जरूरी था। यह प्रावधान दो तरह की परिस्थितियों में फंसी महिलाओं के लिए राहत भरा होगा।

1. पहला दुष्कर्म पीड़िताओं, नाबालिग लड़कियों के लिए जिन्हें गर्भधारण करने का पता नहीं चलता या वह किसी दबाव के चलते बता नहीं पाती। 20 हफ्ते की अवधि समाप्त होने के बाद वह असुरक्षित ढंग से गर्भपात करा लेती थी। कुछ मामलों में उनकी मौत भी हो जाती थी। इस एक्ट के साथ गैर कानूनी अबॉर्शन पर जहां रोक लगेगी वहीं इससे जुड़ा डाटा भी उपलब्ध होगा। सर्वे के मुताबिक, असुरक्षित गर्भपात के कारण 8 प्रतिशत महिलाओं की मृत्यु होती है।

2. दूसरा गंभीर अबनॉर्मल प्रेग्नेंसी से जूझ रही महिलाएं जिन्हें 20 हफ्ते के बाद इस बात की जानकारी हुई कि उनके गर्भ में पल रहा बच्चा जन्मजात विसंगतियों से पैदा होगा ऐसी स्थिति में 20 हफ्ते बाद या तो वह बच्चा पैदा करने के दबाव झेलती थी या गैर कानूनी अबॉर्शन की ओर रुख। इसलिए कही ना कहीं मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेग्नेंसी एक्ट में बदलाव बेहद जरूरी था।

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4. भारत में कितनी महिलाएं झेलती हैं अबनॉर्मल प्रेग्नेंसी?

मेडिकल डाटा के अनुसार, एक प्रतिशत महिलाएं अबनॉर्मल प्रेगनेंसी को झेलती हैं। शिक्षित और जागरुक महिलाएं समय पर टेस्ट कर ये देख पाती हैं कि उनका बच्चा ठीक है या नहीं। ग्रामीण तबके व निम्न वर्ग की बहुत सी महिलाएं ऐसी हैं जो इलाज से वंचित रह जाती है। भारत देश में 7 मिलियन महिलाएं गर्भवती होती हैं। वहीं सोनोग्राफी मशीन की दर सिर्फ 10000 ऐसे में बेहद चुनौतीपूर्ण है कि हर महिला को यह सुविधा मिली हो।

5. विकलांग या अस्वस्थ बच्चा पैदा होने पर पैरेंट्स पर दबाव

अबनॉर्मल प्रैग्नेंसी में माता-पिता व परिवारिक सदस्य भी मानसिक, शारीरिक और आर्थिक दबाव से गुजरते थे। अबनॉर्मल प्रैग्नेंसी से पैदा हुए बच्चे ज्यादा देर तक जीवित नहीं रह पाते। अगर बच्चा जीवित बच जाए तो वह जीवनभर दूसरों पर आश्रित रहते हैं। ऐसी स्थिति में पैरेंट्स पर बच्चे स्वस्थ को लेकर मानसिक और उसे संभालने के लिए आर्थिक दबाव आदि की दिक्कतें झेलना काफी चुनौतीपूर्ण हो जाता था।

6. 24 हफ्तों के बाद गर्भपात की स्थिति मे महिला स्वास्थ को किसी तरह का खतरा

अब मेडिकल साइंस ने इतनी तरक्की की हैं कि मेडिकल में ऐसी पद्धति आ गई है कि सर्जरी के बजाए अबार्शन नेचुरल प्रोसेस से किया जाना संभव है. इसका मतलब ये ही की प्रसूती मे जितना जोखिम है उससे ज्यादा खतरा गर्भपात मे नही रहता।

7. 24 हफ्तों के अबॉर्शन के बाद अगर बच्चा जिंदा पैदा हो तो किस तरह की समस्याएं हो सकती हैं।

गर्भपात 20 हफ्तों के बाद हो या 24 में, दोनों में ही डिलीवरी कराई जाती है क्योंकि बच्चा बड़ा होता है लेकिन 20 हफ्ते में बच्चा जीवित हालत में पैदा नही होता जबकि 24 हफ्ते के बाद बच्चा जिंदा भी पैदा हो सकता है। ऐसे में मेडिकल प्रमाण पत्र के तहत, चिकित्सकों द्वारा पहले बच्चे की धड़कन को बंद किया जाता है फिर गर्भपात।

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8. एमटीपी एक्ट को लेकर लोग कितने जागरूक?

एमटीपी के बदलाव किए एक्ट के बाद लोग ओर जागरुक हो रहे हैं। कही ना कही मीडिया का इसमें एक पॉजिटिव रवैया रहा है। एक सर्वे के मुताबिक, हर साल करीब 2 करोड़ 70 लाख बच्चे जन्म लेते हैं, जिनमें से 17 लाख बच्चे जन्मजात विसंगतियों के साथ पैदा होते हैं। एक्ट में बदलाव होने के साथ लोगों में जागरुकता के साथ सतर्कता भी बढ़ेगी।

'2016 से करीब-करीब 194 ऐसी महिलाओं के केस कोर्ट मे ले जाकर उन्हें न्याय दिलाने का काम डॉ. दातार ने किया और वो भी बिना मूल्य। इन में 90 प्रतिशत महिला निम्न वर्ग की थी।' - डॉ. निखिल दातार  

9. बच्चा पैदा करना महिला का अधिकार

इस पर खास मैसेज देते हुए डा. दातार ने कहा कि यह अधिकार सिर्फ महिला का है कि बच्चे को जन्म देना चाहती है या नहीं । यह काम कुदरत ने उस पर सौंपा है इसीलिए यह अधिकार सिर्फ महिला का है। उस पर किसी तरह का दबाव नहीं होना चाहिए। अगर वह अबनॉर्मल बच्चे को पैदा करना चाहती हैं तो भी उनके इस निर्णय का सम्मान करना चाहिए और नही करना चाहती तो भी उसको मदद मिलनी चाहिए। महिला को अपने अधिकारों की जानकारी रखना बहुत जरूरी है।

-वंदना डालिया


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Content Writer

Vandana

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