पूजा में पशु बलि सही या गलत, क्या कहते हैं शास्त्र? जानिए पूरी जानकारी

punjabkesari.in Tuesday, May 27, 2025 - 05:38 PM (IST)

नारी डेस्क:  आज के समय में जब लोग हिंसा के खिलाफ ज्यादा जागरूक हो गए हैं, तब पूजन में पशुबलि को लेकर सवाल उठना स्वाभाविक है। क्या हिंदू धर्म और शास्त्रों में पशुबलि को सही माना गया है या इसे गलत माना जाता है? इस विषय पर विस्तृत जानकारी लेना जरूरी है।

वैदिक युग में पशुबलि का महत्व

हिंदू धर्म के प्राचीनतम ग्रंथ वेदों में पशुबलि का जिक्र मिलता है। ऋग्वेद और यजुर्वेद में अश्वमेध, गौमेध जैसे यज्ञों का उल्लेख है, जिनमें पशुबलि का विधान था। इन यज्ञों का उद्देश्य था प्रकृति के साथ सामंजस्य बनाए रखना, विश्व कल्याण और देवताओं को प्रसन्न करना। वैदिक काल में पशुबलि को धार्मिक कर्मकांड का हिस्सा माना जाता था, जिसमें शुद्धता और नियमों का खास ध्यान रखा जाता था। यह हिंसा नहीं, बल्कि आध्यात्मिक अनुष्ठान था।

कुछ विद्वान मानते हैं कि वैदिक युग में बलि का अर्थ प्रतीकात्मक भी हो सकता है, जैसे अहंकार या नकारात्मक भावों का त्याग करना। उपनिषदों में भी बलि की जगह आत्मा की शुद्धि और मन की शांति को अधिक महत्व दिया गया है।

शाक्त परंपरा में पशुबलि का स्थान

शाक्त परंपरा में मां दुर्गा, काली, और अन्य देवी-देवताओं की पूजा में पशुबलि का विशेष महत्व रहा है। पश्चिम बंगाल, असम, ओडिशा, नेपाल जैसे क्षेत्रों में नवरात्रि और दुर्गा पूजा के दौरान बकरी, मुर्गा या भैंसे की बलि दी जाती है। कालिका पुराण और देवी भागवत पुराण जैसे ग्रंथों में भी इस प्रथा का उल्लेख है। हालांकि आधुनिक समय में मानव बलि को पूरी तरह से रोक दिया गया है और इसे प्रतीकात्मक तरीके से करने की सलाह दी जाती है।

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तंत्र शास्त्रों में पशुबलि

तंत्र शास्त्रों में भी पशुबलि को देवी के क्रोध को शांत करने और भक्तों को भौतिक तथा आध्यात्मिक लाभ देने का साधन माना गया है। कोलकाता के कालीघाट मंदिर और नेपाल के गढ़ीमाई मंदिर इस प्रथा के लिए प्रसिद्ध हैं। हालांकि तंत्र में सात्विक भक्तों को फल, फूल, नारियल आदि की प्रतीकात्मक बलि देने की सलाह दी जाती है।

अहिंसा का महत्व और सात्विक भेंट

पुराणों में अहिंसा को बढ़ावा दिया गया है। भागवत पुराण, पद्म पुराण जैसे ग्रंथों में कलियुग में पशुबलि को अनुचित माना गया है। भगवद्गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है कि वे पत्र, पुष्प, फल, या जल जैसी सात्विक भेंट को स्वीकार करते हैं, बशर्ते यह भक्ति से दी गई हो। इसका मतलब है कि सच्ची भक्ति हिंसा से ऊपर है।

महात्माओं का विरोध

स्वामी विवेकानंद, महात्मा गांधी जैसे महात्माओं ने भी पशुबलि का विरोध किया और अहिंसा को हिंदू धर्म का आधार बताया। उनका मानना था कि भक्ति और पूजा मन और आत्मा की शुद्धि में है, न कि हिंसा में।

 

आधुनिक स्थिति और कानूनी पहल

आज कई राज्यों में पशुबलि पर रोक या प्रतिबंध है, जैसे त्रिपुरा, तमिलनाडु आदि। पशु अधिकार संगठनों और सामाजिक जागरूकता के चलते यह प्रथा धीरे-धीरे कम हो रही है। लेकिन कुछ क्षेत्र और समुदाय अभी भी इसे अपनी सांस्कृतिक पहचान मानते हैं।

प्रतीकात्मक बलि का चलन

आधुनिक समय में अधिकतर धार्मिक गुरु और विद्वान प्रतीकात्मक बलि जैसे नारियल, कद्दू, फूल आदि की बलि को उचित मानते हैं, जो अहिंसा के सिद्धांत के अनुकूल है। वे कहते हैं कि सच्ची बलि आत्मा की शुद्धि और नकारात्मक भावों का त्याग है।

हिंदू धर्म में पशुबलि को लेकर स्पष्ट एकमत नहीं है। वैदिक काल में यह प्रथा प्रचलित थी, पर बाद के शास्त्र अहिंसा और भक्ति को प्राथमिकता देते हैं। आज के समय में भी यह विषय विवादित है, लेकिन अधिकांश धार्मिक नेता और विद्वान प्रतीकात्मक बलि और अहिंसा को अपनाने की सलाह देते हैं। शास्त्रों का मूल संदेश यही है कि सच्ची भक्ति प्रेम, करुणा और श्रद्धा में है, न कि हिंसा में।
  


 


 


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Content Editor

Priya Yadav

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