पैडवुमन ऑफ इंडिया: 26 की उम्र तक नहीं यूज किया था पैड, अब महिलाओं को कर रही जागरूक
punjabkesari.in Friday, Jan 01, 2021 - 03:48 PM (IST)
मासिक धर्म, महावारी यानि पीरियड्स जो कुछ समय पहले हमारे समाज के लिए एक टेब्बू था। मगर, पिछले कुछ सालों में लोगों की सोच बदली और पीरियड्स को लेकर खुलकर बातचीत होनी शुरु हो गई। यही नहीं, कुछ लोगों की कोशिशों ने सैनिटिरी नेपकिन के इस्तेमाल को भी काफी बढ़ावा दिया लेकिन आज भी कई महिलाएं नैपकिन, मेंस्ट्रुअल कप्स (Menstrual Cups), टैम्पॉन (Tampon) जैसी चीजों से अंजान है।
सर्वे की मानें तो केवल 15 से 24 उम्र की केवल 42% भारतीय लड़कियां ही सेनेटरी नैपकिन यूज करती हैं जबकि 62% लड़कियां कपड़े और 16% लड़कियां को लोकल नैपकिन्स यूज करती हैं क्योंकि इन्हें इसके बारे में सही जानकारी ही नहीं है। ऐसे में लड़कियों को इस बारे में जागरूक करने का जिम्मा उठाया है 'पैड वुमन ऑफ इंडिया' यानि माया विश्वकर्मा ने...
खुद 26 साल नहीं यूज किया था सैनेटरी पैड
मध्य प्रदेश के नरसिंहपुर की रहने वाली माया आदिवासी इलाकों में जाकर महिलाओं को पीरियड्स और स्वच्छता से जुड़ी जानकारियां देती हैं। हैरानी की बात तो यह है कि उन्होंने खुद भी 26 साल तक सैनेटरी पैड यूज नहीं किया था क्योंकि उन्हें इस बारे में कोई जानकारी ही नहीं थी। माया कहती हैं कि मेरी मां पीरियड्स के बारे में खुलकर बात ही नहीं करती थी और मुझे कपड़े ही यूज करने के लिए देती थी लेकिन इसे साफ रखने के बारे में नहीं बताया। इसके कारण मुझे बहुत बार-बार गंभीर इंफेक्शन हो जाता था इसलिए मैं चाहती थी कि मेरे गांव की लड़कियां इसके बारे में ज्यादा जानें और मैंने इस चुनौती को स्वीकार किया।
पिता लौहार लेकिन नहीं किया पढ़ाई से समझौता
उनके पिता पेशे से लौहार है लेकिन आर्थिक हालत खराब होने के बावजूद भी उन्होंने पढ़ाई से कभी समझौता नहीं किया। उन्होंने बायो-केमिस्ट्री में पोस्ट ग्रेजुएशन की डिग्री ली। इसके अलावा वह AIIMS अस्पताल में रिसर्च भी कर चुकी हैं। इसके बाद उन्होंने अमेरिका, कैलिफोर्निया यूनिवर्सिटी से ल्यूकेमिया कैंसर पर रिसर्च की, जहां उन्हें महसूस हुआ कि देश की महिलाओं को पीरियड्स के बारे में जागरूक करना ज्यादा जरूरी है। ऐसे में वह भारत वापिस आ गई।
'पैडमैन' से मुलाकात के बाद शुरू किया सफर
जब रिसर्च पूरी करने के बाद माया भारत लौटीं तब उनकी मुलाकात पैडमैन के नाम से मशहूर अरुणाचलम मुरुगनाथम से हुई, जिनके बारे में उन्हें TED Talk के जरिए पता चला था। वह उनके काम से काफी प्रेरित थी इसलिए उनसे मुलाकात के बाद उन्होंने एक मशीन खरीदकर सस्ते पैड्स बनाने शुरू किए। वह जरूरतमंद महिलाओं पैड्स बांटने के साथ उन्हें इसके प्रति जागरूक भी करती रहीं।
मुनाफे नहीं, बदलाव था माया का मकसद
इसके बाद उन्होंने अपनी सारी जमा पूंजी 2016 में सुकर्मा फाउंडेशन खोलने के लिए खर्च कर दी। अब गांव की करीब 25-26 महिलाएं इस काम में उनकी मदद करती हैं, जिन्हें बाद में वह फ्री में आदिवासी महिलाओं को बांट देती हैं। उन्होंने अपने पैड्स ब्रांड का नाम 'नो टेंशन' रखा है।
गरीब महिलाओं को मुफ्ट बांटती हैं पैंड्स
इसके बाद उन्होंने सुकर्मा के अंतर्गत मैन्युफैक्चरिंग यूनिट का सेट-अप किया, जिसमें बिराग बोहरे और इंजीनियरिंग मैनेजमेंट ग्रेजुएट्स अनुराग ने उनकी मदद की। एक इंटरव्यू में माया ने कहा था कि जहां लोग 2 जून की रोटी भी मुश्किल से जुटा पाते हैं वहां महिलाएं पैड्स कैसे खरीदेंगी। हमारे पैड्स के हर पैकेट की कीमत 25 से 30 रुप है लेकिन गरीब महिलाओं को वह इसे मुफ्त देती हैं। इसमें कई नेक लोग भी उनकी मदद करते हैं। बता दें कि माया पैड्स के लिए टॉप ब्रांड्स में से एक SAP polymer तकनीक का इस्तेमाल करती हैं।
'पैड-जीजी' कहकर बुलाते हैं लोग
माया के इस नेक काम के चलते हर कोई उन्हें 'पैड-जीजी' कहकर बुलाता है।आज माया अपनी टीम के साथ मिलकर रोजाना 2 हजार से अधिरक पैड्स बनाती हैं। इसके साथ ही वह खुद गांव और आदिवासी इलाकों में पैड्स बांटने के लिए जाती हैं और महिलाओं व टीनएजर्स लड़कियों को इससे जुड़ी जानकारियां देती हैं। उनका कहना है कि मैं अब तक जिन भी किशोरियां और युवा महिलाओं से मिली उनमें से ज्यादातर आज भी पुराने गंदे कपड़े, चिथड़े, अखबार, राख और सूखी पत्तियों का यूज करती हैं। इसके कारण रिप्रोडक्टिव ट्रैक्ट इन्फेक्शन, कैंसर जैसी बीमारियों का खतरा रहता है।
वाकई, माया इस मॉर्डन समाज के लिए प्रेरणा हैं, जो महिलाओं को समस्याओं को हल करने के साथ उन्हें कई गंभीर नुकसान से बचाती हैं। इसके साथ ही वह समाज में एक बड़ा बदलाव भी ला रही हैं।