नारी शक्ति! जाईबाई चौधरी एक ऐसी सशक्त महिला जो कुली, फिर टीचर और बाद में दलितों की बुलंद आवाज़ बनीं
punjabkesari.in Friday, Jul 09, 2021 - 06:56 PM (IST)
महिला सशक्तिकरण का ढंका हम भले ही आज बजाना शुरू कर रहे हैं लेकिन इसकी मिसाल तो भारत की महिलाएं सदियों से देती आ रही हैं। ऐसी बहुत सारी महिलाएं हैं जिन्होंने अपने कर्तव्य, दृढ़-संकल्प व सोच से समाज में एक बदलाव की लहर ला दी और उन्हीं में से एक थी महाराष्ट्र के नागपुर ज़िले की रहने वाली जाईबाई चौधरी। एक ऐसी महिला जिसने घर चलाने के लिए कुली का काम किया फिर एक अध्यापक बनीं और Dalit Activist के रूप में समाज में उभरीं।
9 साल की उम्र में शादी, परिवार को पालने के लिए किया कुली का काम-
जाईबाई चौधरी का जन्म महाराष्ट्र के नागपुर ज़िले में 2 मई, 1892 को एक दलित परिवार में हुआ था। परिवार वालों ने उनकी शादी महज 9 साल की उम्र में ही कर दी थी और परिवार को पालने के लिए उन्हें रेलवे स्टेशन पर कुली का काम करना पड़ा, लेकिन एक दिन मिशनरी नन ग्रेगॉरी की नज़र जाईबाई चोधरी पर पड़ी जब वह उनका एक भारी भरकम बैग उठा रही थी।
नन ग्रेगॉरी ने बदली जाई बाई की जिंदगी-
इस दौरान नन ग्रेगॉरी ने जाईबाई से बातचीत की। इस दौरान ग्रेगॉरी को जाईबाई औसत की तुलना में तेज़ बुद्धिमान लगीं। इसी समय नन ग्रेगॉरी ने जाई बाई का हाथ थाम लिया और उन्होंने जाईबाई का स्कूल में दाख़िला करवाया और बाद में उनकी मदद से ही जाईबाई को एक मिशनरी स्कूल में टीचर की नौकरी भी मिल गई।
बेहद संघर्ष से भरा रहा जाईबाई का जीवन-
जाईबाई के जीवन और संघर्ष के बारे में हिस्लॉप कॉलेज, नागपुर की एसोसिएट प्रोफ़ेसर डॉ. अभिलाषा का कहना है कि जाईबाई अपनी शिक्षा पूरी करने के बाद टीचिंग का काम करने लगीं, लेकिन बच्चों के माता-पिता को यह पसंद नहीं आया। दरअसल, अभिभावकों को पसंद नहीं था कि एक दलित टीचर उनके बच्चों को पढ़ाए। उन्होंने अपने बच्चों को स्कूल भेजना बंद कर दिया, जिसके बाद स्कूल प्रशासन ने जाईबाई को नौकरी से निकाल दिया, इससे वे काफ़ी आहत हुई। इतना होने के बावजूद जाईबाई मे हिम्मत नहीं हारी।
दलित और ग़रीब लड़कियों के लिए स्कूल खोला
जाईबाई ने नागपुर में दलित और ग़रीब लड़कियों के लिए स्कूल खोला। इस स्कूल का नाम 'संत चौखामेला रखा। जाईबाई केवल लड़कियों को स्कूलमें शिक्षा देने तक ही सीमित नहीं थी उन्होंने इ जातिवाद को खत्म करने के लिए भी बड़े कदम उठाए, हालांकि उन्हें विरोध का सामना भी करना पड़ा, लेकिन वह हार मानने वालों में से नहीं थी।
जब भरी सभा में महिलाओं ने उन्हें अलग बिठाकर खाना दिया-
वहीं लेखिका अनिता भारती ने जाईबाई के जीवन से जुड़े एक किस्से को शेयर करते हुए बताया कि साल 1937 में ऑल इंडिया वीमेन कॉन्फ़्रेंस का आयोजन हुआ था। एक टीचर और दलित एक्टिविस्ट के तौर पर जाईबाई को भी इसमें भाग लेने के लिए आमंत्रण मिला। कॉन्फ़्रेंस में जब खाने का समय हुआ, तो उच्च जातियों की महिलाओं ने उन्हें अलग बैठने को कहा और उन्हें अलग से खाना दिया। इस पर जाईबाई और उनकी सहेली नाराज हो गई और उन्होंने ये तय किया कि वो उनके कार्यक्रम में कभी शामिल नहीं होंगी, क्योंकि ये लोग भेदभाव, छुआछूत कभी नहीं छोड़ सकते। इसी के विरोध में उन्होंने एक जनवरी 1938 को दलित महिलाओं का एक बड़ा सम्मेलन किया और वह दलित महिलाओं की आवाज़ उठाने में सफल भी रही।
जाईबाई का स्कूल आज higher secondary में हुआ तबदील-
वहीं जाईबाई ने साल 1922 में जिस स्कूल की शुरुआत की थी अब वह higher secondary स्कूल बन गया है। वहीं अब इस स्कूल का नाम बदलकर जाईबाई चौधरी ज्ञानपीठ कर दिया गया है।