गृहस्थ जीवन और संन्यास जीवन में कौन श्रेष्ठ है? जानिए प्रेमानंद जी महाराज के विचार
punjabkesari.in Wednesday, Feb 19, 2025 - 05:24 PM (IST)
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नारी डेस्क: प्रेमानंद जी महाराज एक महान संत और विचारक हैं जो जीवन का सच्चा अर्थ समझाते और बताते हैं। उनके विचार जीवन को सुधारने और संतुलन बनाए रखने में सहायक हैं। उनका संदेश जीवन के विभिन्न पहलुओं को समझने और सही मार्ग पर चलने की प्रेरणा देता है। प्रेमानंद जी महाराज का कहना है कि जैसे हम अपनी दोनों आंखों में से कौन श्रेष्ठ है, यह नहीं बता सकते, वैसे ही गृहस्थ और संन्यासी में से कौन श्रेष्ठ है, यह भी कहना कठिन है। दोनों के महत्व को प्रेमानंद जी महाराज ने समान रूप से बताया है। उनका मानना है कि गृहस्थ जीवन से ही संयासी की शुरुआत होती है। संत महात्मा गृहस्थ से उत्पन्न होते हैं, फिर विरक्त होकर आध्यात्मिक मार्ग पर चलने लगते हैं।
गृहस्थ और संन्यासी: कौन श्रेष्ठ?
गृहस्थ का महत्व
प्रेमानंद जी महाराज के अनुसार, गृहस्थ जीवन को दाहिनी आंख के समान माना गया है। गृहस्थ वही होते हैं जो संसार के कार्यों को निभाते हुए भगवान की भक्ति करते हैं। संत जन ही हमें उपदेश देकर पाप से मुक्ति दिलाते हैं। यही संत ही हमें सत मार्ग पर चलने की प्रेरणा देते हैं। प्रेमानंद जी महाराज कहते हैं, "गृहस्थ जीवन से ही संत बनते हैं और संत जीवन में गृहस्थ की सेवा करते हैं।" दोनों का उद्देश्य एक ही है - भगवान की प्राप्ति। संत गृहस्थ को भिक्षा लेकर शिक्षित करते हैं, और गृहस्थ संतों को अन्न, वस्त्र और सेवा प्रदान करते हैं।
संत और गृहस्थ का समान उद्देश्य
गृहस्थ और संत दोनों की दृष्टि एक ही है - भगवान की प्राप्ति। दोनों का मार्ग भिन्न हो सकता है, लेकिन लक्ष्य एक ही होता है। संत जीवन भर तपस्या, भजन और साधना के माध्यम से भगवान की प्राप्ति के लिए प्रयासरत रहते हैं, जबकि गृहस्थ अपने कर्तव्यों के साथ भगवान का नाम लेकर अपने जीवन को पवित्र बनाता है। प्रेमानंद जी महाराज ने दोनों के बीच की समानता को इस प्रकार बताया है: "गृहस्थ अन्न और वस्त्र से संत की सेवा करता है, और संत भजन, तपस्या और साधना के द्वारा गृहस्थ की सेवा करता है। दोनों की सेवा एक-दूसरे के पूरक हैं।"
गृहस्थ और संत के जीवन की चुनौतिया
गृहस्थ जीवन के संघर्ष
गृहस्थ का मार्ग हमेशा चुनौतीपूर्ण होता है। उसके पास बहुत सी चिंताएँ होती हैं—धन, परिवार, समाज, बच्चों की परवरिश, आदि। इन सभी चिंताओं के बावजूद, गृहस्थ व्यक्ति भगवान का नाम लेता है और जीवन के कर्तव्यों को निभाता है। उसे अपने परिवार और समाज में संतुलन बनाए रखना होता है।
संत का संघर्ष
वहीं, संत के जीवन में भी चुनौतियां कम नहीं होतीं। संत को ब्रह्मचर्य का पालन करना पड़ता है और उसे किसी प्रकार के भौतिक सुखों से दूर रहना होता है। संत के जीवन में कोई पारिवारिक संबंध नहीं होते, न वह मां के प्यार को महसूस करते हैं, न भाई-बहन के प्रेम को। संत का जीवन त्याग और तपस्या से भरा होता है।
प्रेमानंद जी महाराज का यह कहना है कि दोनों—गृहस्थ और संत—के जीवन में समान चुनौतियां हैं। गृहस्थ के पास परिवार की जिम्मेदारियाँ और समाज की अपेक्षाएँ होती हैं, वहीं संत को भौतिक सुखों से दूर रहकर अपने आत्मिक विकास पर ध्यान केंद्रित करना पड़ता है। गृहस्थ व्यक्ति दिन-प्रतिदिन के संघर्षों में उलझा रहता है, जबकि संत अपने तप और साधना में समर्पित रहता है। दोनों के पास अपने-अपने जीवन की कठिनाइयाँ और समस्याएं होती हैं, लेकिन दोनों का उद्देश्य एक ही होता है—भगवान की प्राप्ति।
भगवान की प्राप्ति: संत और गृहस्थ का लक्ष्य
प्रेमानंद जी महाराज ने भगवान की प्राप्ति के विषय में बताया कि चाहे गृहस्थ हो या संत, भगवान की प्राप्ति के लिए दोनों को समान रूप से मेहनत करनी होती है। भगवान श्री कृष्ण ने भी कहा है, "मेरा स्मरण करते हुए युद्ध करो या जीवन जीओ, भगवान की प्राप्ति अवश्य होगी।"
प्रेमानंद जी का संदेश है कि अगर हम अपनी-अपनी पूजा, नाम जप और अच्छे कर्मों के साथ भगवान की ओर रुख करें, तो हमें वही अवस्था प्राप्त होगी जो संतों को मिलती है। भगवान की कृपा से ही जीवन में सुख, शांति और मुक्ति प्राप्त होती है।