सिर्फ पढ़ाई का बोझ और खेल से दूरी: बच्चों को बना रहा मानसिक रूप से कमजोर

punjabkesari.in Thursday, Apr 24, 2025 - 12:40 PM (IST)

 नारी डेस्क:आज के समय में बच्चों पर पढ़ाई का इतना बोझ है कि उनका बचपन जैसे कहीं खो गया है। स्कूल, ट्यूशन और होमवर्क की भाग-दौड़ में वे ना ठीक से खेल पाते हैं, ना ही मन से खुश रह पाते हैं। खेल-कूद से दूरी और हर वक्त अच्छे नंबर लाने का दबाव उनके मानसिक स्वास्थ्य पर बुरा असर डाल रहा है। इसी वजह से छोटे-छोटे बच्चे भी अब तनाव, चिंता और अकेलेपन जैसी समस्याओं से जूझ रहे हैं। इस लेख में हम जानेंगे कि इस समस्या की जड़ क्या है और इसे कैसे सुधारा जा सकता है।

पढ़ाई का अत्यधिक दबाव

अधिकांश अभिभावक अपने बच्चों को सुबह से शाम तक ट्यूशन, कोचिंग और स्कूल प्रोजेक्ट्स में व्यस्त रखते हैं। कई बार तो छोटे-छोटे बच्चों के लिए भी 5-6 घंटे का पढ़ाई का रूटीन बन जाता है। परीक्षा के डर, अच्छे ग्रेड की चिंता और लगातार तुलना की वजह से बच्चे भीतर ही भीतर घुटने लगते हैं। विशेषज्ञों का कहना है कि अधिक पढ़ाई और अपेक्षा बच्चे के आत्मविश्वास को धीरे-धीरे खत्म कर देती है। अगर बच्चा हर बार अव्वल नहीं आ पाता, तो वह खुद को असफल मानने लगता है।

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खेल से दूरी का असर

बचपन का सबसे अहम हिस्सा होता है 'खेल'। लेकिन आज बच्चे मैदान की बजाय मोबाइल स्क्रीन से चिपके रहते हैं। स्कूलों में भी खेल को बहुत गंभीरता से नहीं लिया जाता, और घरों में 'खेल' को समय की बर्बादी समझा जाता है।

खेल न केवल शरीर को मजबूत बनाते हैं, बल्कि तनाव से राहत भी दिलाते हैं। खेलने से बच्चे टीम वर्क, अनुशासन, और हार-जीत को स्वीकारने की कला सीखते हैं। खेल से बच्चों का आत्मविश्वास और खुशी का स्तर भी बढ़ता है।

मानसिक स्वास्थ्य पर बुरा असर

लगातार तनाव, नींद की कमी, अकेलापन, और सोशल मीडिया का असर बच्चों के मानसिक स्वास्थ्य को नुकसान पहुंचा रहा है। कई बच्चों में चिंता (Anxiety), अवसाद (Depression), और चिड़चिड़ापन देखा जा रहा है।

छोटे बच्चों में भी नींद न आना, भूख का कम होना, बार-बार बीमार पड़ना और बात-बात पर रोना या गुस्सा करना मानसिक अस्वस्थता के संकेत हो सकते हैं। अगर समय रहते इस ओर ध्यान नहीं दिया गया तो ये समस्याएं भविष्य में और भी गंभीर रूप ले सकती हैं।

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पैरेंट्स और शिक्षकों की भूमिका

माता-पिता को चाहिए कि वे बच्चों पर पढ़ाई का अनावश्यक दबाव न डालें। हर बच्चा अलग होता है – उसकी रुचियां, क्षमताएं और गति भी अलग होती है। पढ़ाई के साथ-साथ उसे खेलने, दोस्तों से मिलने और खुलकर बात करने का समय भी दें।

शिक्षकों को भी बच्चों की मानसिक स्थिति पर ध्यान देना चाहिए। हर बच्चा केवल अंक नहीं, एक भावनात्मक इंसान भी है। ऐसे में केवल रिपोर्ट कार्ड पर फोकस करने की बजाय उनकी मानसिक संतुलन और रुचियों की पहचान करना भी ज़रूरी है।

समाधान की दिशा में कुछ कदम

खेल को अनिवार्य बनाया जाए – हर स्कूल में कम से कम एक घंटा शारीरिक गतिविधि अनिवार्य होनी चाहिए।

पढ़ाई और आराम में संतुलन – बच्चों को पर्याप्त नींद और मनोरंजन मिले, यह सुनिश्चत करें।

खुले संवाद की आदत – बच्चों से रोज़ाना बातचीत करें। उनके डर, तनाव और इच्छाओं को समझने की कोशिश करें।

स्क्रीन टाइम सीमित करें – मोबाइल और टीवी से दूर रहने के लिए आउटडोर एक्टिविटी को प्रोत्साहित करें।

काउंसलिंग और सहयोग – अगर बच्चा बार-बार तनाव या घबराहट में रहता है, तो विशेषज्ञ से मिलना आवश्यक है।

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बचपन जीवन का सबसे कोमल और सुंदर समय होता है। अगर इसी उम्र में बच्चों को केवल तनाव, प्रतियोगिता और डर का सामना करना पड़ेगा, तो वे कैसे स्वस्थ, खुशहाल और मजबूत व्यक्तित्व वाले बन सकेंगे?

समाज, माता-पिता और शिक्षक – सभी को मिलकर यह तय करना होगा कि बच्चों को केवल 'सफल' ही नहीं, मानसिक रूप से स्वस्थ और संतुलित भी बनाया जाए। इसके लिए जरूरी है कि हम पढ़ाई के साथ-साथ खेलने, बातचीत करने और भावनात्मक सहयोग को भी उतनी ही प्राथमिकता दें।
 
 

 

 

 


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Content Editor

Priya Yadav

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