पुणे में महिला किसानों का शक्ति प्रदर्शन: हक़, सम्मान और पहचान की उठाई आवाज़
punjabkesari.in Sunday, May 25, 2025 - 11:55 AM (IST)

नारी डेस्क: पुणे में हाल ही में आयोजित हुए महिला किसान सम्मेलन में देशभर से सैकड़ों महिला किसान एकजुट हुईं। तीन दिवसीय इस कार्यक्रम में महिलाओं ने न सिर्फ अपने अनुभव और संघर्ष साझा किए, बल्कि खुद को "सिर्फ मजदूर नहीं, बल्कि असली किसान" मानने की ज़ोरदार मांग भी की। उन्होंने साफ कहा कि खेतों में दिन-रात मेहनत करने के बावजूद उन्हें वह अधिकार, सम्मान और पहचान नहीं मिलती जो पुरुष किसानों को मिलती है। इस सम्मेलन ने महिला किसानों की आवाज़ को मजबूती से सामने रखा और उनके अधिकारों के लिए नई दिशा की मांग की। ‘महिला किसान सम्मेलन’ में देशभर से आईं 500 से अधिक महिला किसानों ने भाग लिया।
जब महिलाएं बोलीं – हम भी किसान हैं
सम्मेलन में शामिल महिलाओं ने आत्मविश्वास और ज्ञान के साथ अपनी बातें रखीं। कहीं जनजातीय समुदाय की महिलाएं अपने उत्पादों की जानकारी दे रही थीं, तो कहीं गुजरात से आई महिलाएं अनुवाद उपकरणों के ज़रिये सत्रों को समझ रही थीं। इन सबके बीच एक बात स्पष्ट थी — महिलाएं सिर्फ खेतों में काम करने वाली मजदूर नहीं हैं, वे असली किसान हैं।
मक़ाम की शुरुआत और मकसद
मक़ाम (महिला किसान अधिकार मंच) की शुरुआत 2016 में हुई थी, जब देशभर के करीब 22 सामाजिक कार्यकर्ता और किसान कार्यकर्ता नागपुर में एकत्र हुए थे। मक़ाम की संस्थापक सदस्य केविथा कुरुगंटी बताती हैं कि महिलाओं को किसानों के रूप में पहचान दिलाने की लड़ाई वहीं से शुरू हुई थी। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, महिलाएं 60% से अधिक कृषि कार्य करती हैं, फिर भी केवल 13% कृषि भूमि की मालिक हैं और उन्हें "मजदूर" या "सहायक" ही कहा जाता है।
महिला किसानों के सामने संरचनात्मक हिंसा
मक़ाम की महाराष्ट्र संयोजक सीमा कुलकर्णी बताती हैं कि गांवों में महिलाएं खेतों में बहुत मेहनत करती हैं, लेकिन फिर भी उन्हें अपने ही खेत पर मालिकाना हक नहीं मिलता। उन्हें पुरुषों की तुलना में कम मेहनताना (पारिश्रमिक) दिया जाता है और उनके काम को अक्सर महत्व नहीं दिया जाता।
सीमा कहती हैं कि जब किसी महिला को उसकी जमीन का हक नहीं दिया जाता, उसकी मेहनत की सही कीमत नहीं मिलती या उसके काम को अनदेखा किया जाता है, तो यह भी हिंसा की ही एक रूप है। वह यह भी कहती हैं कि जब कोई महिला किसान आत्महत्या करती है, तो उसे "गृहिणी" कहकर उसकी पहचान को छुपा दिया जाता है, जिससे पता चलता है कि समाज आज भी महिला किसानों के योगदान को गंभीरता से नहीं लेता।
एकजुटता की ताकत
उत्तराखंड की किसान सुवीता कश्यप कहती हैं, “गांव में हम अपने दिल की बात किसी से नहीं कह सकते। लेकिन जब हम यहाँ एक मंच पर आते हैं, तो लगता है कोई हमें समझता है।” महिलाओं की यह आपसी एकता ही मक़ाम की असली शक्ति है। वे न सिर्फ अपने अनुभव साझा करती हैं, बल्कि एक-दूसरे का सहारा बनती हैं।
नीति स्तर पर बदलाव की पहल
मक़ाम ने बीते वर्षों में कई महत्वपूर्ण नीतिगत हस्तक्षेप किए हैं-
भूमि रिकॉर्ड में महिलाओं के नाम दर्ज कराने की पहल। सामुदायिक वन अधिकार (CFR) के तहत संयुक्त स्वामित्व सुनिश्चित कराना। महिला किसानों के लिए सरकारी योजनाओं में सीधी पहुंच। कृषि विपणन नीति, स्थायी कृषि, और आजीविका के वैकल्पिक मॉडल पर कार्य
स्थानीय संगठनों की भूमिका और सफलता की कहानियां
उत्तराखंड की ‘उमंग’ संस्था, जो मक़ाम की सदस्य भी है, 2,500 महिलाओं के साथ 100 गांवों में कार्य कर रही है। सुवीता बताती हैं कि वे स्थानीय उत्पादों को न्यायपूर्ण मूल्य पर बेचती हैं, जिससे महिलाओं की आर्थिक स्थिति मजबूत हुई है।
आगे का रास्ता: महिला किसान केंद्र में हों
कृषि नीति विशेषज्ञ नेवशा सिंह कहती हैं, “महिलाओं को कृषि में केंद्र में लाना ज़रूरी है, नहीं तो वे फिर से हाशिये पर रह जाएंगी।” मक़ाम का लक्ष्य है कि महिला किसानों को सिर्फ समर्थन नहीं, बल्कि नीतियों के निर्माण में भागीदारी भी मिले।
जब महिलाएं बोलती हैं, बदलाव आता है
महिला किसान सम्मेलन ने दिखा दिया कि महिलाएं न केवल खेतों में मेहनत करती हैं, बल्कि नीति, संगठन और नेतृत्व में भी अग्रणी भूमिका निभा सकती हैं। अब समय है कि उन्हें 'मजदूर' नहीं, असली 'किसान' माना जाए — और उनके अधिकारों को पूरी संवेदनशीलता और गंभीरता के साथ स्वीकार किया जाए।