300 साल पुराना है श्री सिद्ध सोढल मंदिर का इतिहास, जानिए कैसे हुई मेले की शुरूआत
punjabkesari.in Saturday, Sep 18, 2021 - 05:04 PM (IST)
पंजाब के जालंधर शहर में हर साल श्री सिद्ध बाबा सोढल मेला लगता है, जो दिन तक चलता है। सिर्फ देश ही नहीं बल्कि विदेशों में भी सोढल मेले व मंदिर की काफी मान्यता है। हालांकि कोरोना के इस बार भीड़ इकट्ठी करने की मनाही की गई है। यहां हम आपको बताएंगे कि हर साल धूम-धाम से मनाए जाने वाले इस मेले की शुरूआत कैसे हुई।
300 साल पुरानी है सोढल मंदिर का इतिहास
पंजाब के श्री सिद्ध बाबा सोढल मंदिर का इतिहास करीब 300 साल पुराना है। इतिहास के मुताबिक, यहां शुरुआत में एक घना जंगल और छोटा सा तालाब था। तलाब के करीब ही एक संत अपनी कुटिया बनाकर रहता था। एक दिन चड्ढा बिरादरी की बहू उनके पास औलाद ना होने पाने की समस्या लेकर आई। तब मुनि ने उसे ऐसा वरदान दिया है कि आपके घर लोगों की सेवा करने वाला बालक पैदा होगा। तब महिला के घर एक बालक पैदा हुआ, जिसका नाम सोढल रखा गया।
जब तलाब से शेषनाग के रूप में प्रकट हुए बाबा
कहानियों के अनुसार, एक बार बाबा सोढल की माता जी तलाब में कपड़े धो रहीं थी और बाबा जी शरारतें कर रहे थे। तभी उनकी मां ने परेशान होकर उन्हें तलाब में डूब जाने को कहा। तब उनकी उम्र 4 वर्ष थी। माता के कहने पर बाबा जी तलाब में कूद गए लेकिन जब उनका उन्होंने विलाप करना शुरू किया तो वह शेषनाग के रूप में प्रकट हुए।
कैसे हुई मेले की शुरूआत?
इसके साथ ही उन्होंने कहा कि जो भी यहां अपनी मुकादे लेकर आएगा वह जरूर पूरी होंगी। इतना कहने के बाद बाबा (नाग देवता) दोबारा तलाब में समा गए। उसके बाद से यहां मेला लगने लगा और भक्त अपनी मुरादें व परेशानियां लेकर आने लगें। बता दें कि तालाब के चारों बनी सीढि़यां और गोलाकार चबूतरा शेषनाग का स्वरूप का प्रतीक है।
कब लगता है मेला?
श्री सिद्ध बाबा सोढल मेला हर साल भाद्रपद की अनंत चतुर्दशी को लगता है। मन्नत पूरी होने के बाद भक्त रोट या अपनी इच्छानुसार प्रसाद भेंट करते हैं। हर साल लाखों श्रद्धालु यहां आकर मन्नतें मांगते हैं। ऐसा कहा जाता है कि यह प्रसाद घर की बेटी तो खा सकती है लेकिन उसके पति व बच्चों को इसे देना वर्जित है।
शेषनाग के अलावा यहां बाबा सोढल का मंदिर भी बनाया गया है जो दूसरा सबसे अहम मंदिर है। समय के समय साथ-साथ इस मंदिर की महिला ओर भी बढ़ती गई। आज हर साल यहां लाखों श्रद्धालु माथा टेकने के लिए आते हैं।
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