जब धर्मेंद्र ने दुख में डूबे दोस्तों के परिवारों का थामा हाथ, कहा था- 'यहां मेरी आत्मा, कहां जाऊंगा?
punjabkesari.in Monday, Dec 01, 2025 - 02:49 PM (IST)
नारी डेस्क: धर्मेंद्र के जाने से एक पूरा दौर खत्म हो गया। भारतीय सिनेमा का यह ‘ही-मैन’ सिर्फ पर्दे पर ही नहीं, बल्कि अपनी जिंदगी में भी एक बेहद नेकदिल इंसान थे। उन्होंने हमेशा कहा कि चाहे वह मुंबई में रह लें, उनके दिल की धड़कनें और उनकी आत्मा हमेशा पंजाब की मिट्टी से जुड़ी रहेगी। लेकिन इस लगाव के साथ कई दर्द भी जुड़े थे बचपन के बिछड़े दोस्त, बंटवारे का जख्म, और वो गांव जहां लौटने पर उन्हें सिर्फ यादें मिलीं।
42 साल बाद जब धर्मेंद्र गांव लौटे
मुंबई में रहते हुए भी धर्मेंद्र के मन में अक्सर अपने छोटे-से गांव लालटन कलां की यादें ताज़ा हो जाया करती थीं। आखिर एक रात, साल 2002 में, उन्होंने अचानक गांव लौटने का फैसला लिया। रात के लगभग 9:30 बजे वह गांव पहुंचे और सीधे एक किसान के घर जाकर बेटे की तरह दरवाजा खटखटाया। जब किसान ने गेट खोला, तो उनके सामने धर्मेंद्र को देखकर उनकी नींद गायब हो गई और घर में खुशी की लहर दौड़ गई।
बचपन के दोस्त अब दुनिया में नहीं रहे – धर्मेंद्र टूट गए
धर्मेंद्र सबसे पहले अपने पुराने दोस्त सुरजीत सिंह के घर गए। लेकिन वहां पहुंचकर उन्हें पता चला कि सुरजीत अब इस दुनिया में नहीं रहे। ये सुनकर वो अंदर से टूट गए। भावनाओं को काबू में रखते हुए उन्होंने सुरजीत के परिवार की आर्थिक मदद की और उनसे कहा “मैं दूर जरूर रहता हूं, लेकिन आप लोग मेरे अपने हो।”
इसके बाद वह दूसरे दोस्त रंजीत के घर पहुंचे। लेकिन वहां भी वही दर्दनाक खबर मिली। रंजीत भी गुजर चुके थे। बचपन के साथ, खेलकूद, सपनों और भरोसे के साथ बड़े हुए इन दोस्तों की गैरमौजूदगी धर्मेंद्र को भीतर तक हिला गई। उन्होंने रंजीत के परिवार को भी हर संभव मदद दी। उस रात गांव में खुशी भी थी कि उनका बेटा लौटा है, लेकिन धर्मेंद्र का दिल अपनों के बिछड़ने के गम में भारी था।
“मेरी आत्मा यहीं रहती है…” – धर्मेंद्र का गांव के प्रति प्यार
धर्मेंद्र हमेशा कहा करते थे “मैं मुंबई में रहता हूं, पर मेरी रूह तो पंजाब की मिट्टी में बसती है… जहां मेरी जड़ें हैं, मैं उसे कैसे भूल सकता हूं?” मुंबई में भी उन्होंने अपनी मिट्टी से जुड़ाव बनाए रखा। उन्होंने फार्महाउस पर खेती-बाड़ी की, गाय-भैंसें पालीं और गांव जैसा माहौल तैयार किया। वह कहते थे कि खेती, जमीन और मिट्टी से उन्हें अपने पिता और पुरखों की याद आती है। जब वह अपने गांव डांगो पहुंचे, तो उन्होंने अपनी पुश्तैनी जमीन अपने भतीजों के नाम कर दी और कहा, “इसे संभालकर रखना… यह हमारी जड़ है।”
विभाजन का दर्द – बचपन से दिल में बैठा हुआ जख्म
बंटवारे के समय धर्मेंद्र 8 साल के थे। वह उस दौर को याद करते हुए अक्सर भावुक हो जाते थे। उन्होंने बताया कि उनके मुसलमान दोस्त- अब्दुल जब्बार, अकरम, उनके बेहद करीब थे। तब हिंदू-मुस्लिम का भेदभाव नहीं था, सब एक परिवार की तरह रहते थे।लेकिन बंटवारे ने सब बदल दिया। माहौल डर से भर गया। उनके अपने शिक्षक रुकनुद्दीन मास्टर जब गांव छोड़ने लगे, तो छोटे धर्मेंद्र उनसे लिपट कर रो पड़े और बोले “मत जाइए मास्टर जी…” लेकिन मास्टर जी ने कहा, “बेटे, हमें जाना ही होगा।” यह पल धर्मेंद्र की आत्मा पर हमेशा के लिए एक जख्म बनकर रह गया।
उस 8 साल की मुस्लिम बच्ची की कहानी जैसे दिल चीर जाए
धर्मेंद्र ने एक इंटरव्यू में बताया कि बंटवारे के समय एक 8 साल की मुस्लिम बच्ची अकेली, डरी-सहमी सड़क पर मिली। उसका कोई नहीं था। धर्मेंद्र के पिता उसे घर ले आए। कुछ दिनों बाद उसे सुरक्षित काफिले तक पहुंचाया गया, लेकिन धर्मेंद्र ने कहा “जब वह गई, ऐसा लगा जैसे घर का कोई अपना जा रहा हो।”
ये अनुभव उन्हें जिंदगी भर नहीं भूला।
धर्मेंद्र ने सिर्फ फिल्मों में हीरो का किरदार नहीं निभाया, उन्होंने जिंदगी में भी वो किया जो सच्चे हीरो करते हैं अपनों का साथ नहीं छोड़ा, दुख में हाथ थामा, और जहां तक बन पड़ा लोगों की मदद की। उनका गांव, उनकी मिट्टी, उनके दोस्त ये सब उनके दिल की धड़कन थे। और शायद इसलिए वो हमेशा कहते थे “यहां मेरी आत्मा रहती है… मैं इसे छोड़कर कहां जाऊंगा।”

