100 साल बाद भी नई जैसी रहती है पाटन-पटोला साड़ी, बांधनी फैशन हजारों साल पुराना
punjabkesari.in Tuesday, Aug 11, 2020 - 04:56 PM (IST)
लाल-पीले-नीले और सफेद रंग के छोटे-छोटे प्रिंट वाली साड़ी-दुपट्टा तो आपने देखे होंगे जिसे बंधेज या बांधनी स्टाइल कहा जाता है। गुजरात और राजस्थान की यह खूबसूरत तकनीक आज पूरी दुनिया में प्रचलित हो गई है। सिर्फ गुजरात ही नहीं अब पंजाब, उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में बांधनी स्टाइल फैशन को बहुत पसंद किया जाता है। साड़ी ही नहीं चुनरी, ओढ़नी, सूट और लंहगों तक पर इसकी अच्छी खासी डिमांड होती हैं। सिर्फ ट्रडीशनल ही नहीं बॉलीवुड दीवाज तो वैस्टर्न में भी बांधनी फैशन को ट्राई करती हैं। ईशा अंबानी ने अपनी मां नीता अंबानी की वैडिंग बांधनी साड़ी को अपने ब्रांड न्यू लहंगे के साथ बड़े ही स्टाइलिश अंदाज में कैरी किया था लेकिन क्या आप बांधनी का इतिहास और इसे बनाने की तकनीक जानते हैं तो चलिए आज इसकी जानकारी आपको देते हैं...
बांधनी प्रिंट का इतिहास
बांधनी शब्द का अर्थ है बांधना, बांधनी प्रिंट की खास बात है कि यह बहुत ही पुराने समय से प्रचलित है और इसके प्रमाण सिंधु घाटी सभ्यता के समय में भी मिलते हैं। अनुमानित रुप से लगभग हजारों साल पहले से इसकी शुरुआत गुजरात राज्य से हुई, राजस्थान में भी इसका खूब प्रचलन रहा और अब पंजाब, उत्तरप्रदेश जैसे राज्यों में भी खूब पसंद की जाती है। इस खास प्रिंट की शुरूआत गुजरात राज्य में खत्रियों द्वारा की गई थी।
टाई-डाई तकनीक से तैयार होता है बांधनी प्रिंट
बांधनी, टाई एंड डाई की एक ऐसी विधि है, जिसमें कपड़े को बांधकर व गांठ लगाकर रंगाई की जाती है। रेशमी, जॉर्जेट, शिफॉन व सूती कपड़े के भागों को रंग के कुंड में डालने से पहले मोमयुक्त धागे से कसकर बांधा जाता है और जब इस धागे को खोला जाता है तो बंधे हुए भाग रंगहीन रह जाते हैं।
मेहनत भरा है बांधनी प्रिंट का काम
बांधनी प्रिंट का काम बड़ी ही मेहनत का काम है, इसे बहुत सारे कारीगर एक साथ मिलकर करते हैं और अगर इसे बनाने वाले कुछ ही लोग हो तो प्रिंट में काफी समय भी लग जाता है। ज्यादातर यह काम युवा लड़कियों द्वारा किया जाता है जो कपड़े पर निपुणता से कार्य करने के लिए लंबे नाखून रखती हैं। इसमें कपड़े को कई स्तरों पर मोड़ना, बांधना और रंगना शामिल है। लाल या नीले रंग की पृष्ठभूमि पर सफेद अथवा पीली बिंदियों वाला वस्त्र रंगों से रंगा जाता है, वैसे तो ज्यामितीय आकृतियां सबसे ज्यादा पसंद की जाती हैं लेकिन एनिमल प्रिंट्स, फूलों तथा रासलीला आदि दृश्यों को भी कई बार शामिल किया गया है। टाई एंड डाई में और भी कई पैटर्न हैं जो काफी पसंद किए जाते हैं। जयपुरिया दुपट्टा तो हर लड़की की पसंद है।
पाटन पटोला भी गुजरात की मशहूर
गुजरात की केवल बांधनी ही मशहूर नहीं है बल्कि पाटन पटोला साड़ियां भी खूब मशहूर हैं। पटोला गुजरात की एक प्रकार की रेशमी साड़ी है, जिसे बुनाई से पहले ही निर्धारित किए नमूने के अनुसार, गांठकर रंग दिया जाता है।
गुजरात की ट्रेडमार्क साड़ी 'पटोला' काफी महंगी
गुजरात की ट्रेडमार्क साड़ी 'पटोला' काफी महंगी मानी जाती हैं जो शाही व अमीर परिवार की महिलाएं पहनती हैं क्योंकि इसे तैयार करने के लिए इसके कच्चे माल रेशम के धागे को कर्नाटक अथवा पश्चिम बंगाल से खरीदा जाता है, जिससे फैब्रिक की लागत कई गुना बढ़ जाती है।
पाटन पटोला साड़ी का इतिहास
अगर इसके इतिहास की बात करें तो यह तकरीबन 900 वर्ष पुराना है। कहा जाता है कि 12वीं शताब्दी में सोलंकी वंश के राजा कुमरपाल ने महाराष्ट्र के जलना से बाहर बसे 700 पटोला बुनकरों को पाटन में बसने के लिए बुलाया और इस तरह पाटन पटोला की परम्परा शुरू हुई। उस समय राजा अक्सर विशेष अवसरों पर पटोला सिल्क का पट्टा ही पहनते थे। पाटन में केवल 3 ऐसे परिवार हैं, जो ओरिजनल पाटन पटोला साड़ी के कारोबार को कर रहे हैं और इस विरासत को आगे बढ़ा रहे हैं। इस विरासत को जीआई टैग भी मिला हुआ है।
पटोला साड़ी की खासियत-100 वर्ष लंबा चलने की गारंटी
- इस पटोला साड़ी की सबसे बड़ी खासियत है कि इसे दोनों तरफ से पहना जा सकता है, इसी लिए इसे 'डबल इकत' आर्ट कहते हैं। डबल इकत में धागे को लम्बाई और चौड़ाई दोनों तरह से आपस में क्रॉस करते हुए फंसाकर बुनाई की जाती है इसलिए तो यह अंतर करना काफी मुश्किल हो जाता है कौन सी साइड सीधी और कौन सी उल्टी। बता दें कि पटोला बुनाई की तकनीक इंडोनेशिया में भी जानी जाती थी, जहां इसे 'इकत' कहा जाता था।
- इसकी दूसरी सबसे बड़ी खासियत है कि इसका रंग कभी हल्का नहीं पड़ता और यह करीब 100 वर्षों तक चलती है। डिजाइनिंग की बात करें तो पटोला साड़ी में नर्तकी, हाथी, तोता, पीपल की पत्ती, जलीय पौधे, टोकरी सज्जा की आकृतियाँ, दुहरी बाहरी रेखाओं के साथ जालीदार तथा पुष्प गहरे लाल रंग की पृष्ठभूमि पर बनाए जाते हैं।
- पूरी साड़ी की बुनाई में एक धागा डिजाइन के अनुसार, विभिन्न रंगों के रूप में पिरोया जाता है। यही कला क्रास धागे में भी अपनाई जाती है। इस काम को करने में काफी मेहनत की जरूरत पड़ती है।
लुप्त होती जा रही हैं पटोला कला
डबल इकत पटोला साड़ी के बुनकरों की यह कला अब लुप्त होने के कगार पर है। भारतीय इतिहास में प्रसिद्ध मुगलकाल के समय गुजरात में इस कला का जितने परिवारों ने अपनाया था, उनकी संख्या लगभग 250 थी। दरअसल पटोला साड़ी को तैयार करने में जितनी लागत आती हैं बाजार में उतनी कीमत नहीं मिल पाती जिस कारण यह कला सिमटती जा रही है।
तो यह थी गुजरात की स्पैशल बांधनी और पाटन पटौला का इतिहास।