बेदखल: आज भी एक वस्तु से ज्यादा कुछ नहीं, औरतों की दशा बयां करता एक ऐसा उपन्यास
punjabkesari.in Monday, Apr 12, 2021 - 04:34 PM (IST)
नीना अन्दौत्रा पठानिया की कृति 'बेदखल' स्त्री विमर्श पर लिखा गया एक ऐसा उपन्यास है जो भारतीय सामाजिक व्यवस्था में स्त्रियों की स्थिति को परत दर परत खोलने का प्रयत्न करती है। जिसमें उसे आज भी एक वस्तु से ज्यादा कुछ भी नहीं समझा जाता। नीना ने अपने उपन्यास को पाठकों की सुविधा तथा उबाऊपन से बचाने के लिए 34 विभिन्न भागों में विभक्त कर तदनुरूप नाम देने की चेष्टा की है।
आधुनिकता के अनेकों पायदान चढ़ने के बाद भी स्त्रियों के मामले में समाज की सोच आज भी दकियानूसी है। जहां बचपन से उसे त्याग करना, शोषण को हंसते हुए सहना और लड़की होने की नियति को बिना किसी प्रतिरोध के चुपचाप झेलते रहना सिखाया जाता है। "बेदखल" की नायिका नंदनी को भी इन्हीं संस्कारों की घुट्टी पिलाई गई है तभी तो वह अपने पति ध्रुव के तिरस्कार और उपेक्षा को चुपचाप सहती है। ससुराल में भी बड़े-बुजुर्गो द्वारा इस जहर को धीमे-धीमे उसके हलक के नीचे उतारने की चेष्टा की जाती है।
नंदनी को उसकी दादी सास घुट्टी पिलाते हुए कहती है, 'दुःख हो या सुख अपने घर की बातें किसी से नहीं कहना।' उसकी दादी सास आगे कहती है, 'राजपूत घर की बहुएं पर्दे में ही अच्छी लगती हैं, सिर नंगा नहीं करना।' दादी सास के इस मशविरे पर भोलेपन से नंदनी का यह सोचना कि क्या सचमुच मेरे सिर से पल्लू सरकने से घर की मर्यादा भंग हो जायेगी? यही दादी सास नंदनी और ध्रुव के बीच की बढ़ती दूरियों पर टिप्पणी करते हुए कहती हैं, 'आदमी, आदमी होता है अपने मन का मालिक होता है। औरत को भी तो रिझाना आना चाहिए।' वास्तव में यह सब हमारे द्वारा लड़कियों के लालन-पालन पर सवाल खड़े करती है। आखिर क्यों हमने उसे पुरूष आक्रामकता से मुकाबले में सक्षम नहीं बनाया?
इसमें संशय नहीं कि संयुक्त परिवार अपने सदस्यों के लिए विपरीत परिस्थितियों में एक तरह से बीमा कंपनी की तरह काम करता है। अपने पति ध्रुव के तिरस्कार व उपेक्षा से दुखी नंदनी छोटे-छोटे बच्चों नेहा, शालू और राजू के बीच उस क्षोभ व पीड़ा को भूलने का प्रयत्न करती है।
स्त्रियों के प्रति यौन अपराध की घटनाएं अधिक उसके जान-पहचान के उन लोगों द्वारा की जाती है जो उसके परिवार पड़ोस अथवा कार्यस्थल में सहयोगी के रूप में वहीं कहीं आसपास छिपा होता है। नंदनी भी यहां अपने ही परिवार में पिता तुल्य ससुर की कुदृष्टि का शिकार होती है लेकिन अपनी कुशाग्रबुद्धि से वह अपनी आबरू सुरक्षित रखने में कामयाब तो हो जाती है लेकिन इस असहमति का खामियाजा उसे संपत्ति से बेदखल होकर चुकाना पड़ता है और यही उपन्यास के नाम को सार्थक करता है।
वर्तमान समय में प्रेम अपना स्वरूप तेजी से बदल रहा है। नंदनी के जीवन में समीर पाल, ध्रुव, विनीत और संजय जैसे चार पुरूष चरित्र प्रवेश करते हैं परंतु वे चारों ही प्रेम को परिभाषित करने में असमर्थ रहते हैं। समीर पाल का नंदनी से विवाह के पूर्व का भावनात्मक लगाव था जो विवाह के पश्चात एक स्त्री के पारिवारिक जीवन में हस्तक्षेप कर उसकी हंसती-खेलती दुनिया को तबाह कर देता है। समाज का यह घृणित चरित्र पुरुष के एक वर्ग का प्रतिनिधित्व करता है तो दूसरा स्वरूप पति ध्रुव के रूप में है जो विवाह के पूर्व के सारे घटनाक्रम से वाकिफ होने के बाद भी ऐसे तत्वों को दण्डित करने की बजाय अपनी निर्दोष पत्नी से दूरियां बना उसे सजा देता है। प्रेम का तीसरा स्वरूप उसके वकील विनीत के रूप में दिखाई देता है जो तलाक की अर्जी दाखिल करते हुए अपने क्लाइंट के संपर्क में आता है। यह प्रेम भी पुरुष के खालीपन या ऊब मिटाने के लिए स्त्री को एक साधन समझने से भिन्न कुछ भी नहीं होता। प्रेम का चौथा स्वरूप उसके दूसरे विवाह में पति संजय के रूप में दिखाई देता है जो अपनी पत्नी के कठिन समय में सहभागी ना बन नंदनी के पिता के बूढ़े कंधों पर बोझ डाल अपने दायित्वों से मुक्त होना चाहता है।
पूरे उपन्यास में एक सुदृढ़ पुरुष चरित्र यदि कहीं दिखाई देता है तो वह नंदनी के स्वयं के पिता का, जो अंत तक अपने बूढ़े कंधों पर बेटी का बोझ ढोते हुए कभी थकता नहीं। नंदनी के मन में हर स्त्री की तरह इन संघर्ष के क्षणों में यह खयाल अवश्य आया होगा कि उसके पिता के प्रेम को प्रतिस्थापित करने वाला दूसरा पुरुष उसे जीवन में कभी नहीं मिल सका।
नंदनी का जीवन संघर्षों से भरी एक ऐसी स्त्री की कहानी है जो अंत में पुरुष के रहमो-कर्म पर अथवा उसके टुकड़ों पर पलने वाली नंदनी ना होकर आर्थिक स्वावलंबन की दिशा में कदम बढ़ाते हुए एक ऐसी स्त्री के रूप में खुद को तैयार करती है जो अपनी बिटिया का पालन-पोषण खुद करने में समर्थ हो जाती है। नंदनी का किरदार स्वयं में स्त्री सशक्तीकरण का संदेश देती है।
लेखिका- नीना अन्दोत्रा पठानिया