दिवाली के अगले दिन यहां बरसते हैं पत्थर, मां काली को चढ़ाया जाता है भक्त का खून
punjabkesari.in Monday, Oct 06, 2025 - 06:56 PM (IST)

हिमाचल प्रदेश की राजधानी शिमला से करीब 15 किलोमीटर दूर धामी कस्बा हर साल दिवाली के अगले दिन एक विचित्र और ऐतिहासिक उत्सव के लिए जाना जाता है - जिसे स्थानीय लोग “पत्थर मेला” (Pathar Ka Mela) कहते हैं।माना जाता है कि जब तक किसी व्यक्ति के शरीर से खून की बूंद न निकले, तब तक यह उत्सव अधूरा माना जाता है।

कहानी और मान्यता
कहा जाता है कि सदियों पहले इस क्षेत्र में देवी काली की पूजा के दौरान मानव बलि (नरबलि) की परंपरा थी। राजघराने के शासनकाल में जब यह प्रथा बंद की गई, तब उसके प्रतीक के रूप में पत्थरबाजी की परंपरा शुरू हुई — ताकि देवी को “रक्त अर्पण” की रस्म पूरी हो सके, लेकिन बिना किसी की जान लिए।
कैसे मनाया जाता है यह मेला
दिवाली के अगले दिन दो समूह धामी और जामोगी गांवों के लोग - आमने-सामने खड़े होते हैं। दोनों पक्ष पत्थर फेंककर एक-दूसरे पर हमला करते हैं, जब तक कि किसी व्यक्ति को चोट लगकर खून न बहने लगे। जैसे ही किसी के शरीर से रक्त गिरता है, उसी को देवी काली को बलि का प्रतीकात्मक अर्पण माना जाता है। इसके बाद पत्थरबाजी रोक दी जाती है और लोग देवी से आशीर्वाद लेते हैं।
खून देवी को अर्पण करने की परंपरा
घायल व्यक्ति के खून की कुछ बूंदें लेकर काली माता के मंदिर में चढ़ाई जाती हैं। लोग मानते हैं कि इससे गांव में सालभर सुख-समृद्धि बनी रहती है और देवी प्रसन्न होती हैं। हाल के वर्षों में यह परंपरा विवादों में भी रही है। प्रशासन अब सुरक्षा के सख्त इंतज़ाम करता है ताकि किसी को गंभीर चोट न लगे। कई लोग इसे सांस्कृतिक विरासत के रूप में मानते हैं, जबकि कुछ इसे खतरनाक परंपरा कहकर बंद करने की मांग करते हैं।

स्थानीय आस्था की झलक
धामी के लोग मानते हैं कि यह परंपरा उनके पूर्वजों की आस्था और देवी भक्ति का प्रतीक है। वहां के एक स्थानीय बुजुर्ग का कहना है कि- “यह कोई हिंसा नहीं, बल्कि देवी के प्रति श्रद्धा का अनोखा रूप है,” । धामी का यह पत्थरबाजी उत्सव भले ही आज के समय में अजीब लगे, लेकिन यह हिमाचल की लोक आस्था, परंपरा और संस्कृति की गहराई को दर्शाता है - जहां बलि की जगह प्रतीकात्मक त्याग ने स्थान लिया है।