दोपहर की झपकी नहीं, बल्कि ''दो शिफ्ट'' में सोते थे पुराने लोग, अब क्यों बदल गया नींद का पैटर्न?
punjabkesari.in Wednesday, Oct 29, 2025 - 06:23 PM (IST)
नारी डेस्क: आधुनिक युग में एक बार में आठ घंटे की लगातार नींद लेना आम बात है लेकिन यह कोई पुरानी बात नहीं है। कई लोग रात में तीन बजे अचानक जाग जाते हैं और सोचते हैं कि कुछ गलत तो नहीं। वास्तव में यह बहुत मानवीय अनुभव है। मानव इतिहास के अधिकांश हिस्से में लोग एक बार में नहीं, बल्कि दो खंडों में सोते थे जिन्हें “पहली नींद” और “दूसरी नींद” कहा जाता था। प्रत्येक नींद कई घंटों की होती थी और इनके बीच में लगभग एक घंटे या उससे अधिक का जागरण काल रहता था।
सूर्यास्त के तुरंत बाद सो जाते थे लोग
यूरोप, अफ्रीका, एशिया सहित विभिन्न क्षेत्रों के ऐतिहासिक अभिलेख बताते हैं कि लोग सूर्यास्त के तुरंत बाद सो जाते थे, आधी रात के आसपास कुछ देर के लिए जागते थे और फिर भोर तक दूसरी नींद लेते थे। रात को दो भागों में बांटने से लोगों के लिए समय का अनुभव भी बदल जाता था। यह मध्यांतर रात्रि को एक स्पष्ट “मध्य बिंदु” देता था, जिससे सर्दी की रातों का समय कम भारी और अधिक व्यवस्थित महसूस होता था। बीच के समय में लोग छोटे-मोटे काम करते थे -जैसे आग सुलगाना या पशुओं को देखना। कई दंपति इस समय का उपयोग निजी क्षणों के लिए करते थे। प्राचीन यूनानी कवि होमर और रोमन कवि विरगिल तक के साहित्य में “पहली नींद के अंत का समय” जैसे उल्लेख मिलते हैं, जिससे पता चलता है कि यह दो-भागीय नींद कितनी सामान्य थी।
‘दूसरी नींद' कैसे गायब हुई
पिछली दो शताब्दियों में हुए सामाजिक और तकनीकी परिवर्तनों ने नींद के इस पैटर्न को समाप्त कर दिया। कृत्रिम प्रकाश इसका प्रमुख कारण रहा। 1700 और 1800 के दशक में तेल के दीपक, फिर गैस और अंततः बिजली की रोशनी ने रात को उपयोगी जागरण समय में बदल दिया। अब लोग सूर्यास्त के तुरंत बाद सोने की बजाय देर तक जागने लगे। औद्योगिक क्रांति ने न सिर्फ काम करने के तरीके बदले, बल्कि सोने-जागने का चक्र भी। कारखानों के तय समय ने एक ब्लॉक में नींद की आदत को बढ़ावा दिया। 20वीं सदी की शुरुआत तक “आठ घंटे की लगातार नींद” का विचार सर्वमान्य हो गया। हालांकि, प्रयोगशालाओं में किए गए अध्ययन बताते हैं कि जब लोगों को लंबी रातें और प्राकृतिक रोशनी से अलग वातावरण दिया जाता है, तो वे फिर दो भागों में सोने लगते हैं। 2017 में मेडागास्कर के एक ग्रामीण समुदाय पर हुए अध्ययन में पाया गया कि जहां बिजली नहीं थी, वहां लोग आज भी लगभग मध्यरात्रि को उठकर दो चरणों में सोते हैं।
लंबी अंधेरी सर्दियां और समय की धारणा
सर्दियों में जब सुबह की रोशनी देर से और कमजोर आती है, तो शरीर का तालमेल बिगड़ जाता है। सुबह की रोशनी में नीली तरंगदैर्घ्य अधिक होती है, जो कॉर्टिसोल के उत्पादन को बढ़ाती और मेलाटोनिन को दबाती है। यह हमारे जागरण चक्र को नियंत्रित करती है। प्रयोगों में पाया गया कि जो लोग कई हफ्तों तक बिना प्राकृतिक प्रकाश या घड़ी के रहते हैं, वे दिनों की गिनती तक भूल जाते हैं। 1993 के एक अध्ययन में पाया गया कि आइसलैंड की आबादी और कनाडा में प्रवासियों में सर्दी के अवसाद की दर असामान्य रूप से कम थी। यह संभवतः आनुवंशिक अनुकूलन का परिणाम था। कील विश्वविद्यालय के एनवायरनमेंटल टेम्पोरल कॉग्निशन लैब में किए गए शोध में पाया गया कि प्रकाश, मूड और समय की अनुभूति के बीच गहरा संबंध है। एक वर्चुअल रियलिटी अध्ययन में पाया गया कि प्रतिभागियों ने शाम या कम रोशनी वाले दृश्यों में दो मिनट की अवधि को अधिक लंबा महसूस किया, विशेष रूप से वे लोग जिनका मूड ठीक नहीं था।
अनिद्रा पर नया दृष्टिकोण
नींद विशेषज्ञों के अनुसार, रात में थोड़ी देर के लिए जागना सामान्य है, खासकर नींद के विभिन्न चरणों के संक्रमण के दौरान। महत्वपूर्ण यह है कि हम उस जागरण पर कैसी प्रतिक्रिया देते हैं। मस्तिष्क में समय की अनुभूति लचीली होती है। चिंता, ऊब या अंधेरा समय को लंबा महसूस कराते हैं, जबकि शांति और व्यस्तता समय को छोटा बना देती है। रात में तीन बजे जागने पर, जब कोई गतिविधि नहीं होती, तो समय बहुत धीमा लगता है। ऐसे में हर मिनट लंबा महसूस होता है। अनिद्रा के लिए संज्ञानात्मक-व्यवहारिक चिकित्सा सलाह देती है कि यदि कोई व्यक्ति 20 मिनट से अधिक जागा रहे, तो उसे बिस्तर छोड़कर मंद रोशनी में कोई शांत गतिविधि करनी चाहिए और नींद आने पर फिर बिस्तर पर लौटना चाहिए। नींद विशेषज्ञ यह भी सुझाव देते हैं कि घड़ी को ढक दें और समय गिनना बंद करें। जागरण को स्वीकार करना और यह समझना कि हमारा मन समय को कैसे महसूस करता है, शायद फिर से नींद पाने का सबसे प्रभावी तरीका है।

