Chhath Puja 2024: कौन हैं छठी मैय्या? छठी मैय्या से जुड़ी ये कथाएं जरूर सुनें

punjabkesari.in Thursday, Nov 07, 2024 - 08:16 PM (IST)

नारी डेस्क: इस समय भारत के कई राज्यों में छठ पूजा का पर्व मनाया जा रहा है। इस दौरान छठी मैया की पूजा (Chhathi Maiya Puja) की जाती है। धार्मिक मान्यता है कि छठी मैया की पूजा संतान की रक्षा के लिए की जाती है और मैया घर परिवार को सुख-समृद्धि से भर देती हैं लेकिन क्या आप जानते हैं छठी मैया कौन हैं और इससे जुड़ी कौन से पौराणिक कथाएं है। चलिए इस बारे में ही आपको बताते हैं।

छठी मैया कौन है? (Who is Chhathi Maiya)

पौराणिक कथाओं के अनुसार, बिहार, झारखंड, उत्तर प्रदेश में छठ मैय्या की पूजा की जैती है और लोकभाषा में देवी षष्ठी को ही छठी मैया कहा जाता है। छठी मैय्या को ऋषि कश्यप और अदिति की मानस पुत्री के रूप में जाना जाता है और कहा जाता है कि वह सूर्य देव की बहन भी है इसलिए इनका एक नाम देवसेना भी है और सूर्य देव (Surya Dev) की कृपा पाने के छठी माता को प्रसन्न किया जाता है और छठ का कठिन व्रत किया जाता है।

पौराणिक कथा के अनुसार, देवी षष्ठी को ब्रह्मदेव की मानस पुत्री के रूप में भी दर्शाया गया है। जब ब्रह्मदेव ने पृथ्वी के साथ प्रकृति का निर्माण किया तो देवी प्रकृति ने स्वयं को छह रूपों में विभाजित किया। पृथ्वी के विभाजित छठ रूपों के छठे अंश को ही छठी मैया कहा जाता है। कहा जाता है कि छठ पूजा में इनकी पूजा करने से मां प्रसन्न होकर साधक को संतान को सुख और आरोग्यता का आशीर्वाद देती है।

छठी मैय्या, माता कात्यायनी का रूप

शास्त्रों के अनुसार, छठी मैय्या को माता कात्यायनी के रूप भी कहा जाता है। माता कात्यायनी की पूजा नवरात्रि के छठी तिथि पर की जाती है और वह मां दुर्गा का छठा अवतार हैं। ब्रह्मवैवर्त पुराण में भी छठी मइयां की पूजा का उल्लेख मिलता है। छठी मैया और माता कात्यायनी दोनों ही हिंदू धर्म में पूजनीय देवी हैं, लेकिन ये अलग-अलग रूपों में पूजी जाती हैं।

छठी मैया: छठी मैया को सूर्य देव की बहन और उर्वरता, शक्ति, स्वास्थ्य एवं समृद्धि की देवी माना जाता है। छठ पूजा के दौरान भक्त सूर्य देव और छठी मैया की कृपा प्राप्त करने के लिए व्रत और जलाशय के किनारे अर्घ्य अर्पण करते हैं।

माता कात्यायनी: माता कात्यायनी मां दुर्गा के नौ रूपों में से एक हैं और नवरात्रि के छठे दिन उनकी पूजा की जाती है। पौराणिक कथाओं के अनुसार, कात्यायन ऋषि के तप से प्रसन्न होकर मां दुर्गा ने उनके घर में जन्म लिया था इसलिए उन्हें कात्यायनी देवी कहा जाता है। वे युद्ध और शक्ति की देवी हैं और उनकी पूजा करने से भय से मुक्ति और विजय प्राप्ति होती है। इस प्रकार, दोनों देवियों का स्वरूप और पूजा का तरीका अलग है।

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छठी मैया की कथा (Chhathi Maiya Katha in Hindi)

पौराणिक कथाओं के अनुसार, प्रियंवद नाम के एक राजा थे जो सभी चीजों से संपन्न थे लेकिन उनके घर में संतान नहीं था। इस बात का राजा को बेहद दुख रहता था।  संतान प्राप्ति की कामना के लिए महर्षि कश्यप ने पुत्रेष्टि यज्ञ कराया। महर्षि ने राजा और उसकी पत्नी को यज्ञ की आहूति के लिए बनाई खीर खाने को दी, जिसके बाद रानी मालिनी गर्भवती हुई और उसे पुत्र की प्राप्ति हुई लेकिन वह नवजात मरा हुआ पैदा हुआ, जिसके बाद राजा और भी दुखी हो गए। राजा प्रियंवद जब नवजात पुत्र के शरीर को लेकर श्मशान पहुंचे और पुत्र के साथ वह अपने प्राण भी त्यागने लगे, तभी अचानक वहां देवी प्रकट हुई।

देवी ने कहा- मैं ब्रह्मदेव की मानस पुत्री देवसेना हूं। प्रकृति के छठे अंश से प्रकट होने के कारण मैं देवी षष्ठी (Devi Shasthi) कहलाती हूं। देवी ने राजा से कहा- हे राजन! तुम मेरी पूजा करो और दूसरों को भी मेरी पूजा के लिए प्रेरित करो। इससे तुम्हें स्वस्थ पुत्र की प्राप्ति होगी। इसके बाद राजा ने व्रत रखकर षष्ठी देवी की पूजा की और राजा को एक सुंदर-स्वस्थ पुत्र की प्राप्ति हुई। कहा जाता है कि इस बाद से ही छठ पूजा के प्रचलन की शुरुआत हुई।

एक कथा के अनुसार, प्रथम देवासुर संग्राम में जब असुरों के हाथों देवता हार गये थे, तब देव माता अदिति ने तेजस्वी पुत्र की प्राप्ति के लिए देवारण्य के देव सूर्य मंदिर में रनबे (छठी मैया) अपनी पुत्री की आराधना की थी। तब प्रसन्न होकर छठी मैया ने उन्हें सर्वगुण संपन्न तेजस्वी पुत्र होने का वरदान दिया था। इसके बाद अदिति के पुत्र हुए त्रिदेव रूप आदित्य भगवान, जिन्होंने असुरों पर देवताओं को विजय दिलाई।

सूर्य पुत्र कर्ण की छठ कथा

एक अन्य मान्यता के अनुसार, छठ पर्व की शुरुआत महाभारत काल में हुई थी। सबसे पहले महादानी सूर्यपुत्र कर्ण ने सूर्य देव को प्रसन्न करने के लिए उनकी पूजा की थी। कर्ण बिहार के अंग प्रदेश (वर्तमान भागलपुर) के राजा थे और सूर्य और कुंती के पुत्र थे। सूर्यदेव से ही उन्हें दिव्य कवच और कुंडल प्राप्त हुए थे, जो हर समय कर्ण की रक्षा करते थे। कर्ण भगवान सूर्य के परम भक्त थे और वह प्रतिदिन घंटों कमर तक पानी में खड़े होकर सूर्य को अर्घ्य देते थे। सूर्य की कृपा से ही वह महान योद्धा बने। इसलिए आज भी छठ में अर्घ्य दान की यही परंपरा प्रचलित है।

द्रौपदी की छठ कथा

कथा के अनुसार, महाभारत काल में द्रौपदी ने भी परिवार की सुख-शांति और रक्षा के लिए छठ पूजा की थी। जब पांडव अपना सारा राजपाट जुए में हार गए तब द्रौपदी ने छठ व्रत रखा। उनकी मनोकामनाएं पूरी हुईं और पांडवों को राजपाट वापस मिल गया। 

माता सीता की छठ कथा

पौराणिक कथा के अनुसार, ऋषि मुद्गल ने माता सीता को छठ व्रत करने को कहा था। आनंद रामायण के अनुसार, जब भगवान राम ने रावण का वध किया था तब रामजी पर ब्रह्म हत्या का पाप लगा था। इस हत्या से मुक्ति पाने के लिए कुलगुरू मुनि वशिष्ठ ने ऋषि मुद्गल के साथ राम और सीता को भेजा था। भगवान राम ने कष्टहरणी घाट पर यज्ञ करवा कर ब्रह्महत्या के पाप से मुक्ति दिलाई थी। वहीं माता सीता को आश्रम में ही रहकर कार्तिक मास की षष्ठी तिथि को व्रत करने का आदेश दिया था। मान्यता ऐसी है कि मुंगेर मंदिर में आज भी माता सीता के पैर के निशान मौजूद हैं।

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छठ पर्व किस प्रकार मनाते हैं ? Chhath Puja Kaise Karte Hai

यह त्योहार चार दिनों का होता है। इसकी शुरुआत कार्तिक शुक्ल चतुर्थी को तथा समाप्ति कार्तिक शुक्ल सप्तमी को होती है। इस दौरान व्रतधारी लगातार 36 घंटे का व्रत रखते हैं। इस दौरान वे पानी भी ग्रहण नहीं करते। छठ व्रत अधिकतर महिलाओं द्वारा किया जाता है हालांकि कुछ पुरुष भी इस व्रत को रखते हैं। व्रत रखने वाली महिलाओं को परवैतिन कहा जाता है। चार दिनों के इस व्रत में व्रती को लगातार उपवास करना होता है। भोजन के साथ ही सुखद शैय्या का भी त्याग किया जाता है। व्रती फर्श पर एक कम्बल या चादर पर ही सोता है। महिलाएं साड़ी और पुरुष धोती पहनकर छठ करते हैं। ‘छठ पर्व को शुरू करने के बाद सालों साल तब तक करना होता है जब तक कि अगली पीढ़ी की किसी विवाहित महिला इसके लिए तैयार न हो जाए। घर में किसी की मृत्यु हो जाने पर यह पर्व नहीं मनाया जाता है।

पहले दिन सेन्धा नमक, घी से बना हुआ अरवा चावल और कद्दू की सब्जी प्रसाद के रूप में ली जाती है। अगले दिन से उपवास आरम्भ होता है। व्रति दिनभर अन्न-जल त्याग कर शाम करीब 7 बजे से खीर बनाकर, पूजा करने के उपरान्त प्रसाद ग्रहण करते हैं, जिसे खरना कहते हैं। तीसरे दिन डूबते हुए सूर्य को अर्घ्य यानी दूध अर्पण करते हैं। अंतिम दिन उगते हुए सूर्य को अर्घ्य चढ़ाते हैं। पूजा में पवित्रता का विशेष ध्यान रखा जाता है। लहसून और प्याज का सेवन वर्जित होता है। जिन घरों में यह पूजा होती है, वहां भक्तिगीत गाये जाते हैं। अंत में लोगो को पूजा का प्रसाद दिया जाता हैं।

नहाय खाय

छठ पर्व के पहले दिन को ‘नहाय-खाय’ के नाम से जाना जाता है। सबसे पहले घर की सफाई कर उसे पवित्र किया जाता है। उसके बाद व्रती अपने नजदीक में स्थित गंगा नदी, गंगा की सहायक नदी या तालाब में जाकर स्नान करते हैं। व्रती इस दिन सिर्फ एक बार ही खाना खाते है। खाना में व्रती कद्दू की सब्जी ,मुंग चना दाल, चावल का उपयोग करते है।तली हुई पूरियाँ परांठे सब्जियां आदि वर्जित रहती है। यह खाना कांसे या मिटटी के बर्तन में पकाया जाता है। खाना पकाने के लिए आम की लकड़ी और मिटटी के चूल्हे का इस्तेमाल किया जाता है। जब खाना बन जाता है तो सर्वप्रथम व्रती खाना खाते है उसके बाद परिवार के अन्य सदस्य भोजन ग्रहण करते हैं।

खरना और लोहंडा

छठ पर्व का दूसरा दिन खरना या लोहंडा के नाम से जाना जाता है। इस दिन व्रती पूरे दिन उपवास रखते है। सूर्यास्त से पहले वह पानी की एक बूंद तक ग्रहण नहीं करते है। शाम को चावल-गुड़ और गन्ने के रस से बनी खीर बनाई जाती है। खाना बनाने में नमक और चीनी का प्रयोग नहीं किया जाता है। इन्हीं दो चीजों को पुन: सूर्यदेव को नैवैद्य देकर उसी घर में ‘एकान्त' करते हैं। एकान्त से खाते समय व्रती हेतु किसी तरह की आवाज सुनना पर्व के नियमों के विरुद्ध है। इसके बाद व्रती खाकर अपने सभी परिवार जनों एवं मित्रों-रिश्तेदारों को वही ‘खीर-रोटी' का प्रसाद खिलाते हैं। इस सम्पूर्ण प्रक्रिया को 'खरना' कहते हैं। चावल का पिठ्ठा व घी लगी रोटी भी प्रसाद के रूप में बांटी जाती है। इसके बाद अगले 36 घंटों के लिए व्रती निर्जला व्रत रखते हैं। मध्य रात्रि को व्रती छठ पूजा के लिए विशेष प्रसाद ठेकुआ बनाती है।

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संध्या अर्घ्य

छठ पर्व का तीसरा दिन जिसे संध्या अर्घ्य के नाम से जाना जाता है। पूरे दिन सभी लोग मिलकर पूजा की तैयारिया करते हैं। छठ पूजा के लिए विशेष प्रसाद जैसे ठेकुआ, चावल के लड्डू जिसे कचवनिया भी कहा जाता है, बनाया जाता है । छठ पूजा के लिए एक बांस की बनी हुयी टोकरी जिसे दउरा कहते है में पूजा के प्रसाद, फल डालकर देवकारी में रख दिया जाता है। वहां पूजा अर्चना करने के बाद शाम को एक सूप में नारियल,पांच प्रकार के फल,और पूजा का अन्य सामान लेकर दउरा में रख कर घर का पुरुष अपने हाथों से उठाकर छठ घाट पर ले जाता है। यह अपवित्र न हो इसलिए इसे सर के ऊपर की तरफ रखते है। छठ घाट की तरफ जाते हुए रास्ते में प्रायः महिलाएं छठ का गीत गाते हुए जाती है। नदी के किनारे महिलाएं घर के सदस्य द्वारा बनाए चबूतरे पर बैठती हैं। नदी से मिटटी निकाल कर छठ माता का जो चौरा बना रहता है उस पर पूजा का सारा सामान रखकर नारियल चढ़ाते है और दीप जलाते है। सूर्यास्त से कुछ समय पहले सूर्य देव की पूजा का सारा सामान लेकर घुटने भर पानी में जाकर खड़े हो जाते है और डूबते हुए सूर्य देव को अर्घ्य देकर पांच बार परिक्रमा करते हैं। इसमें  गेहूं के आटे से बना 'ठेकुआ' सम्मिलित होता हैं। खेतों में उपजे सभी नए कन्द-मूल, फलसब्जी, मसाले व अन्नादि यथा गन्ना, ओल, हल्दी, नारियल, नींबू(बड़ा), पके केले आदि चढ़ाए जाते हैं। ये सभी वस्तुएं साबूत (बिना कटे टूटे) ही अर्पित होते हैं।  घी का दीपक घाट पर जलाते हैं। इसमें सबसे महत्वपूर्ण अन्न जो है वह है कुसही केराव के दानें (हल्का हरा काला, मटर से थोड़ा छोटा दाना) हैं जो टोकरे में लाए तो जाते हैं पर सांध्य अर्घ्य में सूर्यदेव को अर्पित नहीं किए जाते। इन्हें टोकरे में कल सुबह उगते सूर्य को अर्पण करने हेतु सुरक्षित रख दिया जाता है। बहुत सारे लोग घाट पर रात भर ठहरते है वही कुछ लोग छठ का गीत गाते हुए सारा सामान लेकर घर आ जाते हैं और उसे देवकरी में रख देते है।

उषा अर्घ्य

चौथे दिन सुबह उदियमान सूर्य को अर्घ्य दिया जाता है। सूर्योदय से पहले ही व्रती लोग घाट पर उगते सूर्यदेव की पूजा के लिए पहुंच जाते हैं और संध्या अर्घ्य में अर्पित पकवानों को नए पकवानों से प्रतिस्थापित कर दिया जाता है परन्तु कन्द, मूल, फलादि वही रहते हैं। सभी नियम-विधान सांध्य अर्घ्य की तरह ही होते हैं। सिर्फ व्रती लोग इस समय पूरब की ओर मुंहकर पानी में खड़े होते हैं व सूर्योपासना करते हैं और वहां लोगों में प्रसाद बांटकर व्रती घर आ जाते हैं। व्रती घर वापस आकर गांव के पीपल के पेड़ जिसको ब्रह्म बाबा कहते हैं वहाँ जाकर पूजा करते हैं। पूजा के पश्चात् व्रती कच्चे दूध का शरबत पीकर तथा थोड़ा प्रसाद खाकर व्रत पूर्ण करते हैं जिसे पारण या परना कहते हैं।
 


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Content Writer

Vandana

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