हम Connected हैं फिर भी अकेले हैं, तकनीक के युग में पास होकर भी दूर...

punjabkesari.in Friday, Oct 24, 2025 - 12:26 PM (IST)

नारी डेस्क : पिछली रात दीवाली के अवसर पर जब मैं अपने एक मित्र के घर गई, तो एक दृश्य ने मुझे भीतर तक झकझोर दिया। बच्चे घंटों तक मोबाइल में खोए हुए थे। न हंसी, न बातें, बस स्क्रीन की नीली चमक और उनके चेहरों की स्थिरता। सबसे हैरान करने वाली बात यह थी कि माता-पिता पूरी तरह संतुष्ट थे। क्योंकि “बच्चा शांत था, मोबाइल में व्यस्त था।” उसी पल मेरे मन में एक सवाल उठा “क्या हम फ़ोन का उपयोग कर रहे हैं, या फ़ोन हमारा?”

संवाद का उद्देश्य था जोड़ना, न कि हमें निगल जाना

जब अलेक्ज़ेंडर ग्राहम बेल ने टेलीफ़ोन का आविष्कार किया था, तब उसका उद्देश्य था लोगों को जोड़ना लेकिन आज, जब हम हर समय “कनेक्टेड” हैं, तब भी भीतर एक अजीब-सा अकेलापन महसूस होता है।

अल्बर्ट आइंस्टीन ने बहुत पहले चेताया था 

“मुझे उस दिन का डर है जब तकनीक मानवीय बातचीत से आगे निकल जाएगी; उस दिन दुनिया में मूर्खों की पीढ़ी पैदा होगी।” आज लगता है कि हम उसी युग में जी रहे हैं। जहां तकनीक ने संवाद को शब्दों का शोर बना दिया है, भावनाओं की भाषा नहीं। 

हम बोलते ज़्यादा हैं, सुनते कम

आज संवाद उपभोग का साधन बन गया है। हम बात कहने के लिए नहीं करते, बल्कि चुप्पी भरने के लिए करते हैं। हम संदेश कहने के लिए नहीं भेजते, बल्कि मौजूद रहने का प्रमाण देने के लिए भेजते हैं। हम स्क्रीन जानकारी पाने के लिए नहीं देखते, बल्कि वास्तविकता से भागने के लिए देखते हैं। यह अति-संवाद का युग है। जहां शब्द तो अधिक हैं, पर अर्थ खो गए हैं। हम लगातार टाइप कर रहे हैं, फॉरवर्ड कर रहे हैं, पोस्ट कर रहे हैं पर सुनने की कला खो गई है। हम जितने उपलब्ध हैं, उतने ही अनुपस्थित भी।

रिश्ते अब अपडेट्स से पहचाने जाते हैं, एहसासों से नहीं

हमने संवाद करना सीख लिया है, पर संबंध बनाना भूल गए हैं। अब हम लोगों को उनके स्टेटस अपडेट्स से जानते हैं, उनके एहसासों से नहीं। हम अब किसी से मिलने की प्रतीक्षा नहीं करते। बस तस्वीर भेज देते हैं। मौन अब हमें डराता है, जबकि वही तो आत्मा की भाषा थी।मौन बुद्धिमानों की भाषा है, और शोर बेचैन आत्माओं का सहारा। हर किसी से जुड़े रहने की इस होड़ में हम धीरे-धीरे खुद से कटते जा रहे हैं।

अब समय है दूरी तय करने का — फ़ोन से, नहीं अपनों से 

शायद अब समय है कि हम अपने और अपने फ़ोन के बीच की दूरी को फिर से परिभाषित करें। याद रखें। यह एक साधन है, जीवन का मूल्य नहीं। संवाद का अर्थ है जोड़ना, बांधना नहीं। बच्चों को सिखाएं कि सुकून किसी स्क्रीन की रोशनी में नहीं, बल्कि किसी अपने के चेहरे की मुस्कान में है। हर विचार साझा करना ज़रूरी नहीं, हर संदेश का जवाब तुरंत देना आवश्यक नहीं। हर चुप्पी को शब्दों में बदलना विवेकपूर्ण नहीं।

असली संवाद वही है, जो महसूस किया जाए

हम अंतहीन संवाद के लिए नहीं बने थे, हम गहरे अनुभव के लिए बने थे क्योंकि असली संवाद यह नहीं कि हम कितना बोलते हैं, बल्कि यह कि हम कितना महसूस करते हैं और शायद अगली बार जब हम फ़ोन उठाएं तो खुद से एक सवाल ज़रूर पूछें —“मैं इसका उपयोग कर रहा हूं, या यह मेरा?”

                                                                                                                                                                                                                                                                              लेखिका- तनु जैन 

                                                                                                                                                                                                                                                                               CEO, बरेली कैंट 


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Content Editor

Monika

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