पुरुष-स्त्री समानता का संदेश वाले बॉलीवुड ने क्या बदली है खुद की सोच?

punjabkesari.in Friday, Mar 08, 2024 - 06:26 PM (IST)

 रेशमा पठान का नाम शायद ही आपने पहले कभी सुना हो, लेकिन 1970 के दशक में फिल्म जगत में एक 'स्टंट' कलाकार के रूप में कदम रखने वाली संभवत: पहली महिला थीं। रेशमा कहती है कि उनके पुरुष सहयोगी अक्सर उन्हें ताना मारा करते थे कि वह खूबसूरत हैं और अगर उन्हें चोट लग गयी तो उनसे शादी कौन करेगा। चार दशकों से ज्यादा और 500 फिल्में करने के बाद निडर रेशमा उन चुनिंदा महिलाओं में शुमार हैं, जो आज फिल्म जगत की मजबूत स्तंभ बन चुकी हैं। 


अब भी मौजूद है लैंगिक भेदभाव

यह फिल्म जगत सिर्फ अभिनेताओं से ही नहीं, बल्कि निर्देशकों, संपादकों, पटकथा लेखकों और कैमरापर्सन से मिलकर बना है, जो भले ही पर्दे के पीछे रहकर काम करते हैं, लेकिन फिल्म निर्माण में अहम भूमिका निभाते हैं। निर्देशक अश्विनी अय्यर तिवारी, गीतकार-लेखक कौसर मुनीर सहित कई महिलाएं, खासकर पुरुष प्रधान फिल्म जगत में जब अपने संघर्ष के दिनों को याद करती हैं, तो कहती हैं कि बदलाव एक प्रक्रिया है और लैंगिक भेदभाव अब भी मौजूद है, फिर भी बहुत सी चीजें बदली हैं। 


 रेशमा पठान ने बताई सच्चाई

रेशमा ने शुक्रवार को अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के मौके पर  अपनी एक इंटरव्यू में कहा-, ''फिल्म निर्माता ने कभी नहीं कहा कि मैं इसलिए स्टंट नहीं कर सकती, क्योंकि मैं महिला हूं, लेकिन फिल्म में काम करने वाले दूसरे पुरुष कलाकार कहते थे कि तुम खूबसूरत हो और अगर चोट लग गयी तो कौन तुमसे शादी करेगा? दरअसल वे नहीं चाहते थे कि मैं काम करूं। मैं उनसे कहती थी कि मेरी चिंता न करें। आप एक महिला को नीचा दिखाने की कोशिश क्यों कर रहे हैं? उन्हें मुझसे जवाब की उम्मीद नहीं थी, लेकिन मैंने उन्हें जवाब दिया।''


कई अभिनेत्रियों के लिए स्टंट कर चुकी हैं रेशमा

 हेमा मालिनी, वहीदा रहमान, रेखा और श्रीदेवी सहित कई दिग्गज अभिनेत्रियों के लिए स्टंट करने वाली 69-वर्षीय रेशमा ने कहा कि जब उन्होंने 70 से 80 के दशक में फिल्मों में शुरुआत की तो उस वक्त स्टंट करने वाली कोई दूसरी महिला नहीं थी। उन्होंने कहा, ''मुझे एक जूनियर कलाकार के रूप में एसोसिएशन का सदस्य बनना पड़ा और फिर मुझे स्टंट करने का मौका मिला, क्योंकि वहां स्टंट कलाकारों की कोई एसोसिएशन नहीं थी।'' रेशमा ने कहा कि शुरुआत में केवल 90 रुपये प्रतिदिन मेहनताना मिला करता था।  चीजें अब बदल चुकी है और कई महिलाएं तेजी से इस दिशा में आगे बढ़ रही हैं, क्योंकि फिल्म की कहानियां बदल रही हैं और अब महिलाओं को फिल्म में घरों में काम करते हुए या फिर रोमांस करते हुए ही नहीं दिखाया जाता, बल्कि वे अपने समकक्ष पुरुष कलाकारों की ही तरह एक्शन करती हैं। 


पुरुष और महिला के बीच नहीं होना चाहिए अंतर

'निल बट्टे सन्नाटा', 'बरेली की बर्फी' और 'पंगा' जैसी महिला प्रधान फिल्में बनाने वाली अश्विनी अय्यर तिवारी का कहना है कि असल जीत तो तब मिलेगी जब महिलाओं की पहचान लैंगिक आधार पर नहीं, बल्कि उनके पेशे से होगी। तिवारी ने बताया- ''हमें महिला निर्देशक जैसे शब्दों का इस्तेमाल करना बंद कर देना चाहिए और सिर्फ निर्देशक कहना चाहिए। पुरुष या महिला होने से क्या होगा, कहानी पर ज्यादा ध्यान देना चाहिए।'' अपने पति नीतेश तिवारी के साथ मिलकर एक प्रोडक्शन हाउस चलाने वाली अश्विनी कहती हैं, ''फिल्म जगत में बहुत संख्या में महिलाएं हैं। बहुत सारी सहायक निर्देशक भी हैं, जो कैमरे के पीछे काम करती हैं और यह एक सुखद एहसास प्रदान करता है, क्योंकि एक समय पर हमें वाकई में कैमरे के पीछे काम करने वाली महिलाओं को ढूंढना पड़ता था। हम यह भी सुनिश्चित करते हैं कि हर विभाग में दो या तीन महिलाएं जरूर काम करें।'' 

अब बदल  रही हैं चीजें 

'अनजाना-अनजानी', 'इश्कजादे' और 'एक था टाइगर' जैसी फिल्मों के गाने लिखने के लिए मशहूर कौसर मुनीर भी इस बात से सहमत हैं। कौसर कहती हैं ऐसी धारणा है कि कविता और संगीत ऐसे क्षेत्र हैं, जिसमें पुरु‍ष मंझे हुए होते हैं, लेकिन चीजें तभी बदल सकती हैं, जब ज्यादा से ज्यादा महिलाएं इस पेशे में शामिल होंगी। उन्होंने कहा-, ''मैं एक अच्छा उदाहरण हूं। हम अधिक महिलाओं को लाना चाहते हैं, हमें अधिक संख्या में महिलाएं चाहिए। मुझे यह बताते हुए बहुत खुशी हो रही है कि फिल्म जगत में लोग मुझे एक महिला गीतकार के रूप में नहीं देखते। वे मुझे शीर्ष गीतकारों के समकालीन लोगों में से एक के रूप में देखते हैं।'' मुनीर ने कहा कि वह कभी भी 'मैं तंदूरी मुर्गी हूं यार' (दबंग 2 में करीना कपूर का आइटम नंबर) जैसे गीतों का सहारा नहीं लेंगी। उन्होंने कहा, ''मैं इसे पेश करने का एक बेहतर तरीका ढूंढने की कोशिश रही हूं, इसलिए यह क्षमता पर निर्भर करता है। मैं अक्सर कहती हूं कि 'बीड़ी जलइले' या 'कजरा रे' जैसे गीत एक पुरुष ने लिखे हैं। गुलजार साहब का रुतबा अलग है।'' अय्यर, मुनीर और रेशमा बदलाव देखती हैं, लेकिन लैंगिक भेदभाव की ये परत अब भी मौजूद है, जो पहले से कहीं ज्यादा मजबूत है। 
 

Content Writer

vasudha