सावित्रीबाई फुले, भारत की पहली महिला शिक्षक और समाज सेविका

punjabkesari.in Thursday, Jan 03, 2019 - 05:09 PM (IST)

भारत की महिलाओं को शिक्षित करने का श्रेय समाज सेविका सावित्रीबाई ज्‍योतिराव फुले को जाता है। उनका जन्म 3 जनवरी, 1831 को महाराष्ट्र के सतारा जिले के नायगांव में हुआ था और आज उनकी 187वीं जयंती है। उन्होंने समाज के विरोध के बावजूद खुद शिक्षा ग्रहण करके न सिर्फ समाज की कुरीतियों को हराया बल्कि देश की लड़कियों के लिए पढ़ाई का नया रास्ता भी खोल दिया जिसके बाद महिलाओं को लिए राह आसान हो गई। साल 1848 में महाराष्ट्र के पुणे में देश के सबसे पहली बालिका स्कूल की स्थापना करने का श्रेय इन्हीं को जाता है। 

सावित्रीबाई फूले की 9 साल की उम्र में हो गई थी शादी

सावित्रीबाई फूले की शादी 9 साल की उम्र में 13 साल के ज्योतिराव के साथ हो गई थी। शादी तक उनकी कोई स्कूली शिक्षा नहीं हुई थी लेकिन उनकी पढ़ने की बहुत इच्छा थी। परिवार ने उनका इस विषय में कोई साथ नहीं दिया।

 

पति ज्‍योतिराव फुले ने सिखाया पढ़ना-लिखना 

पढ़ाई की ओर दिलचस्पी को देखते हुए पति ने सावित्रीबाई का बहुत साथ दिया। जब वे अपने पति को खेतों में खाना देने जाती थी तब ज्योतिराव उन्हें पढ़ना सीखाते थे। किसी तरह इस बात की भनक उनके पिता को लग गई और रूढ़िवादी समाज के डर से उन्होंने सावित्रीबाई को घर से निकाल दिया। इतना सब सहते हुए भी उन्होंने हार नहीं मानी और अपनी पढ़ाई जारी रखी। ज्योतिबा ने पत्नी का पूरा साथ दिया और सावित्रीबाई को पढ़ाना जारी रखा। उनका दाखिला एक प्रशिक्षण विद्यालय में कराया।

लड़कियों के लिए खोला देश का पहला आधुनिक स्कूल 

सावित्रीबाई फुले ने पति के साथ मिलकर साल 1848 में पुणे में महिला स्कूल खोला। जिसमें कुल नौ लड़कियों ने दाखिला लिया और सावित्रीबाई फुले इस स्कूल की प्रधानाध्यापिका बनीं क्योंकि लड़कियों को पढ़ाने के लिए उन्हें कोई अध्यापिका नहीं मिली तो पती ने सावित्री को इस योग्य बना दिया।

 

सावित्रीबाई फुले कुल ने 18 स्कूलों का किया निर्माण

अपने जीवनकाल में फुले दंपति ने कुल 18 स्कूल खोले। जिससे लड़कियों के लिए राह आसान हो गई। 

 

थैले में एक्स्ट्रा साड़ी लेकर जाती थी पढ़ाने 

जब वह लड़कियों को पढ़ाने के लिए जाती थी तब भी लोग पूरी तरह से उनके विरूद्ध थे। उन्हें पत्थर मारते थे, गंदगी, किचड़, गोबर तक फैंक देते थे। समाज पूरी तरह के उनके खिलाफ था, उन्हें लगता थी कि लड़कियों को पढ़ाकर सावित्रीबाई धर्मविरुद्ध काम कर रही हैं इसलिए वह थैले में अपने साथ एक साड़ी लेकर जाती थी ताकि स्कूल पहुंच कर गंदी साड़ी बदल सके। 

कवयित्री भी थी सावित्रीबाई फुले

टीचर होने के साथ-साथ वह एक कवयित्री के लिए भी जानी जाती थीं। उन्हें मराठी की आदिकवयित्री के रूप में भी पहचान मिली थी। जाति और पितृसत्ता से संघर्ष करते उनके कविता संग्रह छपे। उनकी कुल चार किताबें हैं। 

कड़े सामाजिक विरोध के बावजूद विधवा विवाह, छुआछूत का विरोध, दलित और महिलाओं की आजादी के लिए आंदोलन चलाने वाली महिला।

सामाजिक कुरीतियों के खिलाफ लड़ी लड़ाई 

सावित्रीबाई फुले और उनके पति ज्योतिराव फुले ने कई सामाजिक कुरीतियों को खिलाफ लड़ाई लड़ी। जातिवाद, छुआछूत और लैंगिक भेदभाव के खिलाफ उन्होंने जोरदार आवाज उठाई। 

 

गर्भवती विधवाओं के लिए एक आश्रयगृह खोला, जहां वह बच्चा पैदा कर सकती थीं। सावित्रीबाई फुले ने उन बच्चों के लालन-पालन की भी व्यवस्था की। ऐसा ही एक बच्चा यशवंत फुले परिवार का वारिस बना।

उस दौरान महिला अगर विधवा होती है तो उसके सिर मुंडवाने की प्रथा थी। सावित्री बाई ने इस अमानवीय प्रथा के खिलाफ आवाज उठाई और नाई बिरादरी लोगों द्वारा इस मुद्दे पर हड़ताल करवाई कि वह विधवाओं का मुंडन नहीं करेंगे।

 

उन्होंने अपने घर का कुआं दलितों के लिए खोल दिया जो उस दौर में बहुत बड़ी बात थी।

बाल विवाह सुधार के लिए ब्रिटिश शासकों ने दिया साथ 

आजादी से पहले समाज में कई तरह की कुरीतियां चल रही थी। लोगों के अंधविश्वास और रूढ़िवादी सोच को बदलने के लिए ब्रिटिश शासकों ने फुले दंपति की समाज सुधार के कार्यक्रम चलाने में मदद की। 19 वीं शताब्दी में समाज में बाल विवाह पूरी तरह से प्रचलित था। कई लड़कियां बाल विधवा हो जाती थीं और विधवा लड़कियों की दोबारा शादी नहीं हो पाती थी। फुले दंपति ने परंपरा को बदलने के लिए बाल विवाह के खिलाफ भी सुधार आंदोलन चलाया। 

 

ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने किया था सम्मानित 

ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने शिक्षा के क्षेत्र में फुले दंपति के अहम योगदान को स्वीकार करते हुए उन्हें सम्मानित भी किया।

बालहत्या प्रतिबंधक गृह नाम का सेंटर चलाया 

महिलाओं की सुरक्षा के लिए उन्होंने बालहत्या प्रतिबंधक गृह नाम का सेंटर चलाया ताकि कन्याओं को बचाया जा सके। 

ब्राह्मण विधवा के बेटे को लिया गोद

फुले दंपति की कोई संतान नहीं थी। आत्महत्या करने जा रही विधवा ब्राह्मण महिला काशीबाई की उन्होंने अपने घर में डिलीवरी करवा कर उनके बेटे यशवंतराव को दत्तक पुत्र के रूप में गोद लिया। दत्तक पुत्र यशवंत राव को पाल-पोसकर इन्होंने डॉक्टर बनाया।  

 

पति की मौत के बाद संभाला संगठन का काम 

पति ज्योतिबा फुले की मृत्यु के बाद उनके संगठन सत्यशोधक समाज का काम सावित्रीफुले ने संभाल लिया।

 

प्लेग मरीजों के लिए खोला अस्तपाल  

सावित्राबाई ने अपने डॉक्टर बेटे के साथ मिलकर साल 1897 को प्लेग मरीजों को लिए अस्पताल खोला। पुणे में स्थित इस अस्पताल में वह बेटे के साथ मिलकर खुद भी मरीजों की देखभाल करती थी। 

 

10 मार्च 1897 को हुआ देहांत 

प्लेग मरीजों की सेवा में जुट सावित्रीबाई भी इस रोग की शिकार हो गई, जिसके चलते1897 में उनकी मृत्य हो गई।

Content Writer

Priya verma