कभी इमली बेचकर करती थी घर का गुजारा, आज विदेशों में दे रही है Lecture

punjabkesari.in Tuesday, May 15, 2018 - 11:49 AM (IST)

किसी भी मुकाम को हासिल करने के लिए कई मुश्किलों का सामना करना पड़ता है। ऐसी ही कहानी है झारखंड की बेटी जसिंता केरकेट्टा की। जो कभी गांव में इमली बेचने का काम करती थी, वह आज अपनी कविताओं से देश ही नहीं विदेशी लोगों के लिए भी प्रेरणा बनी हुई हैं। जिनकी किताबों का विदेशी भाषाओं में भी अनुवाद हो चुका है। आज जसिंता इटली, जर्मनी और स्विटजरलैंड में लोगों को लेक्चर दे रही है। 
 


जसिंता केरकेट्टा इटली के तुरीनो शहर में शुरू 31वें इंटरनेशनल बुक फेयर के 10 मई के उद्घाटन समारोह में खास मेहमान थीं। वहां उनकी कविता संग्रह की किताब अंगोर के इतालवी अनुवाद ब्राचे का लोकार्पण भी हुआ, इस किताब को इतालवी प्रकाशन मिराजी ने प्रकाशित किया है। खास बात यह है कि जसिंता की इस किताब को एक नहीं बल्कि तीन भाषाओं में प्रकाशित किया गया है। 
 


जसिंता के लिए यह राह आसान नहीं थी, उनकी पहली किताब 2016 में आदिवाणी प्रकाशन, कोलकाता से हिंदी-अंग्रेजी में छपी थी। इसके बाद इस किताब को जर्मन के प्रकाशन द्रौपदी वेरलाग ने ग्लूट नाम के नाम से इसे हिंदी-जर्मन में प्रकाशित किया। इस किताब की बढ़ती लोकप्रियता को देखते हुए पब्लिशर्ज  2018 में इसे दोबारा छापा। इसके बाद फिर इसी साल भारतीय ज्ञानपीठ ने जर्मन के प्रकाशन द्रौपदी वेरलाग और हाइडलबर्ग के साथ मिलकर जसिंता की किताब जड़ों की जमीन को हिंदी- अंग्रेजी और हिंदी-जर्मन में एक साथ छापा। जसिंता से पहले झारखंड की किसी भी आदिवासी कवि की कविताओं को अंतरराष्ट्रीय स्तर एक साथ तीन भाषाओं में कभी प्रकाशित नहीं किया गया। 

 

जसिंता की कविताओं में उनकी जिंदगी की दर्द साफ झलकता है। पश्चिमी सिंहभूम जिला के मनोहरपुर प्रखंड के खुदपोस गांव में गांव में रहने वाली जसिंता को दो वक्त की रोटी के लिए भी हाट पर जाकर इमली बेचनी पड़ती थी। इसके बावजूद भी उन्होने पढ़ाई को पूरी लगन के साथ जारी रखा। बेटी की आगे की पढ़ाई जारी रखने के लिए उनकी मां ने अपनी जमीन को 7000 रुपय में गिरवी रखा। यह पैसे लेकर जसिंता रांची चली आई। सेंट जेवियर्स कॉलेज के मास कम्युनिकेशन में दाखिला लिया लेकिन पैसों की कमी को पूरा करने के लिए बाजार में सुरक्षा गार्ड कंसल्टेंसी सेंटर में काम भी किया। स्कूलों में अग्निशमन यंत्र भी बेचे। इसके बाद भी कई रात भूखे रहकर पढ़ाई को जारी रखा। 
 


जसिंता ने कविताएं लिखनी शुरू की, जिसमें आदिवासियों की जिंदगी,उनकी स्थिति, और उनके संघर्ष से लोगों को रूबरू करवाया। कई भाषाओं में उनकी कविता संग्रह का अनुवाद हुआ। कुछ दिन पहले जसिंता ने इटली के वेनिस स्थित काफोस्करी यूनिवर्सिटी, मिलान यूनिवर्सिटी, तुरिनो यूनिवर्सिटी और स्विट्जरलैंड की ज्यूरिख यूनिवर्सिटी में भी कविताओं का पाठ किया और 2016 में जर्मनी के 12 शहर और वहां की चार यूनिवर्सिटी में उनका लेक्चर हुआ था। ऐसा कहा जा रहा है कि वह ऑस्ट्रिया और जर्मनी भी जाएंगी और अपनी कविताओं का संवाद करेंगी। 

 

जसिंता को अब तक कई राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय सम्मानों से नवाजा जा चुका है। जिसमें विशंकर उपाध्याय स्मृति युवा कविता पुरस्कार, झारखंड इंडीजिनस पीपुल्स फोरम,एआईपीपी थाईलैंड का इंडीजिनस वॉयस ऑफ एशिया का रिकॉग्निशन अवार्ड, छोटानागपुर सांस्कृतिक संघ का प्रेरणा सम्मान समेत और भी कई पुरस्कार शामिल हैं। उनकी कविताओं का पंजाबी, उर्दू, गुजराती, मराठी, असमिया, कन्नड़,तमिल संथाली सहित कई भाषाओं में अनुवाद हो चुका है। 
 


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